Tuesday, 1 June 2021

....आपदा और भारतीय समाज....





 किसी महान विचारक ने कहा था,समाज की जरुरत हर किसी को होती है।अगर कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे इसकी आवश्यकता नहीं होती तो वह या तो राक्षस होगा या फ़िर भगवान। ऐसे में किसी मानव के जीवन में एक समाज की उपयोगिता क्या क्या हो सकता है इसका जबाब हम में से हर किसी के पास है। कयोंकि हम सभी एक समाज में रहते है और इसके फायदे और नुकसान से वाकिफ़ है। यह कभी हमारे सर पर छत का काम करता ,तो कभी हमारे किये गये अनुचित कार्यो के लिये हमें नेस्तनाबूद कर देता है। अगर किसी की असली स्वरुप की व्याख्या करनी हो,मतलब कि अगर किसी की असलियत जानना हो तो उस समय का इन्तज़ार करना चाहिए जब वह आपदाओं से घिरा हुआ हो। कयोंकि ऐसे ही समय में हमें ऐसे लोगो की पहचान होती है ,जो आपदा को अबसर में तब्दील स्वार्थ हित में करते हैं  या फ़िर समाज हित में। समाज में अलग अलग सोच के लोग रहते है।इसलिए किसी एक पहलू पर किसी समाज का मूल्यांकन करना गलत हो सकता है। किसी एक विचारधारा,या मनुष्य,या किसी जाती,वर्ग,सम्प्रदाय को लेकर किसी समाज की कल्पना करना मूर्खता होगी। कयोंकि किसी समाज का निर्माण अलग-अलग विचारधाराओं के सम्मिलित प्रयासों से बनता है और हम उसके अभिन्न अंग है।


समाज और वैश्वीकरण.....

आजकल सोशल मीडिया के अलग अलग प्लेटफॉर्म पर वर्तमान परिस्थित पर लोग व्यंग करते हुये देखें जा सकतें है। उनका कहना होता है कि ''अच्छा है कोरोना 21वीं सदी में आया ,अगर उससे पहले आयी होती तो हम कैसे रहते " क्या वाकई में अगर कोरोना पहलें आता तो हमारे लिये मुश्किल होता? तो मुझे ऐसा लगता है कि ऐसा नहीं होता। 


कयोंकि तब हमारी आवश्यकता उतनी ज्यदा नहीं थी जितनी आज है। हाँ मै मानता हूँ कि उस समय उतनी आवश्यकता ही काफ़ी थी जिसकी पूर्ति करना कठिन होता। लेकिन आज और कल में जो अंतर है वो यह की तब हम खुद पर निर्भर रहते थे मगर आज हम छोटी-सी छोटी बातों के लिये भी औरों पर निर्भर रहते है। दरअसल बात यह है की हमनें अपनी दूनियाँ इतनी रंगीन बना ली और अपने साथ साथ अपने आस पड़ोस के लोगों में उस रंगीनियों को  इस कदर गढ़ दिया,की इसके बैगैर रहना अब हमारे लिये असम्भव लग रहा है। जीवन मुश्किल हो रहा है। इसके कई कारण और  भी है सिर्फ़ यही एक वजह नहीं है। लेकिन अगर मुख्य कारकों की बात की जाए तो इसकी गिनती सबसे पहले होगी।

 इसके साथ हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हम कही ना कही अपने आप से घिर गए हैं ,जिसके कारण हमे छोटी से छोटी समस्याएँ भी बड़ी लग रही है। हम सोचते हैं कि हमसे बड़ी परेशानी किसी पास नहीं सब खुस हैं  शिबाय मुझे छोडक़र। जिसमें वास्तविकता कुछ नहीं है,यह सिर्फ़ हमारी कल्पना की उपज है। यही उलझन अगर 10 -15 साल पहलें होती तो हम आसानी से उबर जाते क्योंकि उन परिस्तिथियों हमारी आवश्यकता सिर्फ़ हम तक सीमित नहीं थी हम दूसरों को अपने से ज्यदा महत्वपूर्ण समझते थे। मतलब की समाज में हर किसी क समान रूप से योगदान था। लोग सामुहिक रूप संगठित थे। किसी एक के समस्याओं का निदान सभी के पास था। लोग एक दूसरें को अपने हालतों से अवगत कराते थे। किसी तरह की कोई परेसानी नहीं होती।





 लेकिन वर्तमान समय में एक दूसरें को खुसी की बातें तो छोड़ो अपने दुख में भी शामिल करने से भी कतराते हैं। पहले गरीबी अत्यधिक थी लेकिन गॉंव में जब तक कोई एक भूखा हो कोई एक निवाला नहीं खाता। मगर क्या आज यह देखने को मिलता है? नहीं हम अपनी दुनियादारी में इस तरह मसगूल हो चुके है की दूसरें से बेखबर हो चुके है। आज शहर में एक ही मकान के अलग अलग कमरे में दो लोग बर्षो से रहते हैं। मगर एक दूसरें से अंजान। एक अपने कमरे में किसी हालत में पड़ा है दूसरें को कोई खबर नहीं। लेकिन गाँव में ऐसा नहीं होता है। अलग अलग प्रचलन जो कभी भी भारतीय समाज की अंग नहीं थी आज अपना घर बना चुकी है। 


एक दूसरें के प्रती बैर,नफरत, आत्महत्या,लोगों का अनादर करना, अपमानित करना आदी ऐसे प्रचलन भारतीय समाज को लज्जित करने का प्रयास है। हालांकि विश्व आज भी भारतीयता के कारण ही किसी भी प्रकार की  अप्रिय स्थिति से उबर पता है जो की उसके अस्तित्व की रक्षा के लिए सदैब प्रतिबद्ध रहती है। वर्तमानस्थिति को ही अगर उदाहरण के तौर पर देखा जाय तो कोरोना महामारी के कारण जब विश्व केअलग-अलग विकसित और आर्थिक रूप से सम्पन्न देश इस महामारी के आगे वेवस नज़र आ रहें है। तो भारत अपने खान पान,सभ्यता-संस्कृति,और सामुहिक सहयोग के नैया में बैठ महामारी से पार पा रहा। एक दूसरें की जरूरतों को पूरा करतें हुये दवा और दुआ के सहारे अपनी अस्मिता की रक्षा करतें हुयें आगें बढ़ रहा है।


आज जब विश्व वैश्वीकरण के दौर से गुजर रहा है और अपनी सभ्यता-संस्कृति के साथ अन्य सभ्यता-संस्कृति को भी अपना रहा है। दुख की बात है की हम आधुनिकीकरण में अपनी सभ्यताओं को सँस्कृति को भुल रहें है। और दोष किसी औरों के माथे पर डाल रहें है।आखिर कौन सी वजहों के कारण हम अपनी सँस्कृति और सभ्यताओं को भुल कर उन सँस्कृति और सभ्यताओं की ओर भाग रहे हैं जिसकी अपनी कोई अस्तीत्व नहीं है। इतिहास कहता कि आपदा या कोई पृकृतिक विपदा मानव को अवसर देती है की वह अपने आपको पहचाने, और उसमें  हुयें ऐसे बदलाव जिनकी कोई खास आवश्यकता नहीं है उसमें पुन: बदलाव लाये।


लोगों द्वारा समाज के प्रति सोच.....


आये दिन लोग भारतीय समाज पर आरोप लगाते रहते हैं कि यह सिर्फ़ बड़े और सुखी सम्पन्न लोगों की हितैषी है। और गरीब आम जनता को अपने रुढ़िवादी और रीति रिवाजों के जाल में फंसा कर बड़े और सुखी सम्पन्न लोगों के गुलाम बनाने की कोशिश करती है। लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। कयोंकि इतिहास साक्षी है कि जब विश्व भर में जमींदारी प्रथा,मानव को गुलाम बनाना, महिलाओं के साथ अत्याचार,सामंत वाद ,और राजतंत्र की क्रूरता चरम पर थी एक यहीं समाज था जँहा इसका विरोध सदा से किया गया है। जिसके उदाहरण के लिए,यँहा महिलाओं को माता का दर्जा दिया जाता है, कुवारी कन्याओं को देवी के रुप में पूजा जाता है।विश्व का पहला लोकतंत्र भी यहीं अस्थापीत हुआ था। आदी अनेकों उदाहरण है जो इस बात का समर्थन करतें है। रही बात रुढिवादी सोच की तो परिस्थित के अनुसार जब जैसी जरुरत हुई है रीति रिवाजों का प्रयोग उसके अनुसार किया गया है।


 जो की सही भी है। कयोंकि समय के साथ आये बदलाव जिसमें लोगों का रहन सहन,खान पान,रुढ़िवादीता  पर अधिक विस्वास ना करना,अपने सभ्यता के अनुसार सँस्कृति में बदलाव करना यहाँ की पहचान रही है। और वर्तमान में विश्व इसका अनुसरण कर रहा है। और अगर कोई हमारी सभ्यता-संस्कृति का अनुसरण करें तो क्या इसका मतलब यह नहीं की हम औरों से बेहतर है? अगर वर्तमानस्थिति की बात की जाए तो यह साफ़ तौर पर देखा जा सकता है की किस प्रकार से हमारा समाज इस महामारी के आपदा को अवसर मे बदलने का कार्य किया है। काम,करोबार,मांगलिक और अमांगलिक,सामजिक व्यवस्था,परिवारिक व्यवथा आदी में बड़ा बदलाव देखने को मिला है। जिसकी इजाज़त हमारी सभ्यता-संस्कृति देती है। तो यह कहना की हमनें अपने सँस्कृति के उसुलों का पालन करते हुए अपने में थोरा बदलाव किया है,तो यह गलत नहीं हो सकता है। कयोंकि बदलाव किसी के प्रगति की पहली निसानी होती है।



लोगों द्वारा समाज के प्रति जागरूक होना......


ऐसे विषम परिस्थिति जब सामाजिक दुरी ही लोगों को बचाने का एक मात्र उपाय हो तो लोगों से दुरी रखना एक अच्छा कदम हो सकता है मगर ऐसे लोग जो आर्थिक रूप से कमज़ोर है,अपने घरों के भरण पोषण के लिये सक्षम नहीं है उनसे सामजिक दुरी की इजाज़त भारतीय समाज कभी देता क्योंकि यह देश,यह समाज जिस सिध्दांत पर चलने की प्रेरणा देता है उसका मतलब यह नहीं है कि विपदा में किसी मजबूर का साथ ना दिया जाए। और शायद  विस्व में "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया" की बात करने वाला यह देश भौगोलिक और आर्थिक रुप से शक्तिशाली ना होने के बाद भी यह पूजनीय है। फ़िर ऐसे परिस्तिथियों का समाधान ना कर पाना इस राष्ट के लिए असंभव है। जिसका तोर निकालते हुए समय और परिस्तिथि की मांग की मानते हुए यह समाज एक दूसरें से दुरी जरुर रखा मगर वो शारिरीक दुरी थी। लेकिन मानसिक और आर्थिक रूप से हमेशा एक दूसरे के लिए तैयार रहा। अपने जान,परिवार की चिंता ना करतें हुयें ,कुछ लोग समाज के जरुरत मंद लोगों की मदद के लिए आगे रहें। किसी को सामजिक मदद,किसी को आर्थिक सहायता,किसी को परिवारिक मदद की पूर्ति के लिए हमेशा ये तत्पर रहें। जिसके लिये लोगों ने आपसी मतभेद को दरकिनार भी कर दिया। कयोंकि यह समय आपसी मतभेद का नही है बल्कि आपसी सहयोग,प्रेम,आदी का है। लोगों ने आपसी सहयोग को ज्यादा अहमियत देना उचित समझा किसी दुसरे के आगें हाथ फैलाकर माँगने या किसी की खैरात का इन्तज़ार करने से। कयोंकि इनका मानना था कि जब परिस्तिथि सामान्य होती है तो समाज के पिछड़े वर्ग,जरुरतमंद लोगों को अपने हक के लिए काफ़ी मशक्कत करनी पड़ती है।



 चाहे मदद किसी बड़े संस्थाएँ,या सरकार के द्वारा दी जा रही हो। इन्हें लोगों के हाथ पैर पकड़ना पड़ते है,एक छोटी-सी मदद पाने के लिए ,और उसके बाद भी आसान नहीं होता की उन्हें उनकी आवश्यकता की पूर्ति हो जाय।तो ऐसे समय जब हर किसी को मदद की आवश्यकता है,तो उनकी मदद करना थोरा कठिनाईयों भरा तो है। इसका एक अन्य कारण यह भी है कि हमारे रक्षक,जनप्रतिनिधि,जिन्हें हमने अपने सुख दुःख मे सहभागिता के लिए चुना है अगर वो ही हमारे कमा ना आये तो किसी और का इन्तज़ार करना कितना सही होगा यह वक़्त पर निर्भर करता है। किसी ने मदद कर दिया तो अच्छी बात है नहीं तो भगवान ही मालिक है। ये एक दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप लगा आसानी से अपने आपको अपने कार्यो से पीछे हटा लेते है।और किसी अन्य को दोषी ठहरा दिया करतें है। और हम मजबूर अशहाय लोगों को किसी अंजान की राह तकने के शिबाय कुछ नहीं बचता। हम यूँ ही किसी को दोषी ठहरा दे तो अलग बात है वरना हम भी काफ़ी हद तक इसके गुनेहगार है। कयोंकि जब सबाल करने का समय आता तो हम आँखों में आँख डालकर अपने जनप्रतिनिधियों से ना ही अपनी बात रखते और ना ही पिछले कार्यो का हिसाब माँगते है। सिर्फ़हवा के झोंके की तरह  एक ही ओर चल बहते हैं। ना जाने हम ऐसा क्यों करतें है मगर हम करतें तो है। हो सकता है कि यह लोगों का समाज के प्रति एकजुटता होने की पहचान हो। आसान भाषा में समाज के प्रति उदारता हो लेकिन ऐसी उदारता,एकजुटता  जँहा अपने हक के कुछ ना बोला जाय,दूसरें को यह अबसर देती है की वह फर्ज से गद्दारी करे।



लोगो के प्रति समाज का प्रयास.....

आपदा में किसी अंजान की मदद कैसे की जा सकती है इसकी जानकारी और सीख हमें भारतीय समाज से मिलती है। इसके अनेक उदाहरण है जिसमे कुछ पर लोकप्रियता का मुहर लग चुकी है तो कुछ अंजान शहर में गुमनाम हो चुके है। जब भी किसी वैश्विक स्तर पर किसी प्रकार का संकट अपने प्रचंड रुप में तबाही मचाती है। और विस्व को उससे लड़ने के लिए एकजुट होने की जरुरत होती है तो भारतीय समाज ने हमेशा एक अलग मिशाल पेश किया है।जिसका इतिहास के पन्ने खुल कर समर्थन करते है। ऐसे में ऐसी परिस्थिति जब सामाजिक एकजुटता ही महाविनाश की कारण हो तो समाज की रक्षा के लिए समाज से दुरी बना लेना ही एक ऐसा मार्ग बचता है जो हमारे और हमारे देश के लिए अस्तीत्व को बचा सके। कयोंकि जब जीवन ही समाप्त हो जायेगा फ़िर एक दूसरे की फ़िक्र की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती।


 इसलिये हमें सर्वप्रथम खुद को बचाना होगा अगर हम देश और समाज को बचाने के लिए प्रयत्न करते हैं। ऐसे में सबाल आता है की समाज के जो सक्षम लोग है उन्हें कठिनाईयों का सामना करने में कोई खास परेसानी नहीं होती,मगर ऐसे लोग जो सक्षम नहीं है क्या ऐसे परिस्तिथियों में उन्हें अकेले छोड़ देना एक सम्रद्ध देश या समाज के लिए चिंताजनक बात नहीं होगी? एक घर में चूल्हे जल रहें हो और दूसरें में एक दाने के लिए लोग तरस रहे हो ,तो क्या सभी का पेट भर सकता है? एक के लिए आलिशान बँगला वो भी खाली पड़ी हो और दुसरा रहने के लिए दर दर भटक रहा हो,तो चैन से कौन सो पायेगा? एक को रखने के लिए जगह कम पड़ रहा हो और दुसरा तन कैसे छिपाये इसके लिए बैचैन हो,तो सबाल उठना लाजमी होता है। मगर इन सब हकीकतों से कौन है जो अंजान है? क्योंकि वर्तमान हालातों से तो हर कोई परिचित हैं,हर कोई लड़ भी रहा है। मगर कितने लोग है जो दूसरें के लिये चिंतित हैं। किसी आपदा को देखकर या आपदा के समय हम एक दूसरे का साथ ना दे और दूसरें के परिस्तिथियों का लाभ उठाये तो क्या यह मानवता होगी? जँहा हमें एक दूसरे की मदद करने की आवश्यकता हो वहां अगर मुँह फेर लिया जाए तो यह किसी सभ्य मानव की ना तो पहचान हो सकती और ना ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति इसकी इजाज़त दे सकती है। 



और एक मानव और सच्चे भारतीय होने के नाते ऐसा करते हुयें खुद को यह नीच कार्य में सम्मिलित करते हुये सोचेगा जरुर,कि क्या यह सराहनिए है? खैर यह बात अलग है कि एक समाज में अलग-अलग विचारधाराओं के लोग रहते है जिनमें कोई किसी की मदद के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने की ताकत रखता है और अपने जान की परवाह किए बिना ही औरों के सुख चैन के लिये हमेशा तैयार रहता है। तो कोई ऐसे ही आपदाओं की ताक में रहता की कैसे इसे अपने स्वार्थ के लिए अबसर में तब्दील कर लीया जाय।हालांकि ऐसे ही लोगों के कारण मानवता सर्मसार होती है। लेकिन मानव का एक विचारधारा के प्रति एक मत होना उसके स्वभाविक गुण के विपरीत है। इसलिये ऐसे विचारधारा के लोग जो नकरात्मक है, किसी को अपने स्वार्थ के लिए परेशानियों में धकेलने का काम करते है, समाज को तोरने का काम करते है,ऐसे लोगों से दुरी रखना हकीक़त में सामजिक दुरी बनाने का प्रयास होगा। कोई आपदा ना सिर्फ हमे चिंतित करने,भयभीत करने या फ़िर परेशान करने के लिए आती है। बल्कि कभी कभी यह बहुत बड़ी सिख देने का काम भी करती है। और कोरोना वैश्विक महामारी हमें सिखाती है की जो समाज को तोरते है,बरगलाते है,मानवता के लिये धब्बा है ऐसे लोगो से सामजिक दुरी बनाकर रखना ही एक सच्चे और सभ्य समाज की पहचान है।


संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

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