Sunday, 21 January 2024

कहानी राम मंदिर की, एक सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आंदोलन की...

पिछले दिनों अयोध्या में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह को लेकर राजनीतिक गहमागहमी काफ़ी ज्यादा बढ़ गई है। जहां एक तरफ समारोह को लेकर पूरा देश राममय है, वही दूसरे तरफ आमंत्रण और निमंत्रण को लेकर राजनीति हो रही है। जिन्हें आमंत्रण मिल रहा है, उनके पास न जाने के बहाने है। जिन्हें आमंत्रण नहीं मिल रहा उनके पास आने के बहाने है। मगर इस लड़ाई में कुछ लोग ऐसे भी है जिन्हें ना आमंत्रण से मतलब है और ना ही निमंत्रण से। उनका कहना है कि जब चीजें उनके पक्ष में होगी तब वो अयोध्या जाएंगे। ज्ञात हो की 22 जनवरी को अयोध्या में होने वाले प्राणप्रतिष्ठा को लेकर राम मंदिर ट्रस्ट द्वारा लोगों को कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया जा रहा है। आमंत्रित होने वाले लोगों में राजनेता, अभिनेता, सहीत अलग अलग क्षेत्रों के वीआईपी और आम लोग भी शामिल है।

ऐसा कहा जा रहा है कि करीब 500 साल बाद अयोध्या में बन रहा राम मंदिर, निकट भविष्य में हिंदुओं का सबसे बड़ा धार्मिक स्थल बनेगी। देश में हिंदुओं की सबसे बड़ी आबादी है, ऐसे में हिंदुओं के लिए यह सबसे बड़े अवसरों में से एक है। वर्तमान में देश कि सबसे बड़े पार्टी और सत्तारूढ दल भारतीय जनता पार्टी के लिए अपनी महत्वाकांक्षा भुनाने का सबसे बेहतरीन अवसर है। पार्टी अपने स्थापना से ही इस कार्य में भी लगी हुई है और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए पार्टी ने हर संभव प्रयास किया है, और उसे सफलता मिली है। यही एक कारण है कि पार्टी के लिए आज भी यह एक ऐसा मुद्दा है जहां पार्टी किसी भी समझौते से खुद को अलग कर रही है। खैर ये मुद्दे अलग हैं। क्योंकि राजनैतिक महत्वाकांक्षा हर पार्टी की होती है। इसे किसी अन्य विषय से जोड़कर देखना किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं होगा।

आंदोलन की शुरुआत  

फिलहाल बात राजनीति के उस किस्से कि जिसका परिणाम है राम मंदिर का निर्माण। राम मंदिर मुद्दे पर बीजेपी की सबसे बड़ी जीत अपने विपक्ष पर ये है कि इस मुद्दे पर विपक्ष के एक जैसे सुर कभी नहीं रहे है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की कहानी कब शुरू हुई इसके कई पहलू है। लेकिन समझदारों ने इसे अलग-अलग खंडों में विभाजित कर इसे समझने वालों के लिए आसान कर दिया। आप कुछ और भी कह सकते हैं। शब्दों का क्या है? भाव एक होने से मतलब है। राम मंदिर आंदोलन को समझदारों ने 3 भागों में बांटा है। जिसकी शुरुआत मध्य से होती है। उससे पहले का हिस्सा और फिर बाद का किस्सा तो जोड़ा गया है। जिसके गवाह उसके साक्ष्य हैं। समय की मांग है और जनमत का विश्वास है। इस आंदोलन को जिन तीन भागों में बांटा गया है, उनमे एक महत्वपूर्ण किरदार है ताला। इसे ऐसे समझते है। विवादित स्थल पर ताला किसने और क्यों लगाया? ये कहानी का पहला हिस्सा है। जिसके कुछ भाग दूसरे हिस्से से भी लिए गए है। तीसरे हिस्से में विवादित स्थल को लेकर हुए आंदोलन, कोर्ट के फैसले के साथ साथ राम मंदिर का निर्माण है। दूसरे हिस्से की कहानी जो वास्तविक लगती है दरअसल वो पहले और तीसरे हिस्से का सार है। जिसमें उन सभी सवालों के जबाव है जो एक प्रश्नकर्ता के लिए जानना जरूरी है। संख्या में और तिथियों में कहें तो, पहला हिस्सा 1949 से लेकर 1985 तक है। जिसमें ताला लगाया जाता है और उसे खोला जाता है। उसके बाद 1986 से लेकर 1992 तक के किरदार है जो वास्तव में है। उसके बाद 1992 से 2019 तक की कहानी है जिसे परिस्थिति के अनुसार बुना गया। जिसका बुना जाना एक लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए जरूरी था।

22 जनवरी 2024 को 1885 (पहली बार यह मामला कोर्ट में पहुंची थी) को शुरू हुए उस आंदोलन की जीत पर औपचारिक मुहर लग जाएगी। इतिहास में अंकित किस्से की माने तो 1885 में पहली बार फैजाबाद की एक अदालत में महंत रघुबीर दास द्वारा अयोध्या उस बाबरी मस्जिद के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के साथ उस आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसके संघर्ष ने कितनों ही किस्सों को जन्म दिया। लेकिन इतिहास के कुछ पन्ने ये मानते है कि आंदोलन कि असली शुरुआत 1949 में हुई थी। मामले को लेकर कहा जा रहा है कि विवादित स्थल पर पहले से ही ताला लगा था। लेकिन यहां सवाल है कि ताला लगाया किसने? एक सबसे जरूरी सवाल का कोई पुख्ता जवाब नहीं है। दरअसल हुआ ये कि विवादित स्थल पर जब मूर्ति रखी जा रही थी या मिली थी( अलग अलग मीडिया रिपोर्टों के आधार पर)। तो वहां पर अफरातफरी के माहौल को देखते हुए सुरक्षा के वास्ते ताला बंद कर दिया गया। जिसका कोई आदेश किसी ने नहीं दिया। इसकी पुष्टि करती है मीडिया रिपोर्ट्स जिसके मुताबिक 1985 में एक स्थानीय व्यक्ति उमेश पांडे द्वारा मुंसिफ सदर अदालत में ताला खोलने का मुदमा दायर किया। याचिका पर सुनवाई करते हुए मुंसिफ सदर ने तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट सभाजित शुक्ला से इस मामले में रिपोर्ट मांगी। न्यायालय के आदेश के बाद जब सिटी मजिस्ट्रेट ने 1949 से लेकर 1985 तक के अयोध्या से जुड़े सभी रिकॉर्ड की सघनता से जांच की तो पता चला की स्थल पर ताला किसने मारा इसकी कोई जानकारी कहीं नहीं है। लेकिन रिपोर्ट के बाद याचिककर्ता को एक मजबूत आधार मिल गया और उसने फिर से ताला खोलने के लिए न्यायालय में अर्जी दाखिल की। जिसे बहाना बनाकर टाल दिया गया लेकिन अब मुद्दा टलने वाला नहीं था।

धर्म संसद का गठन और रथ यात्रा

आंदोलन के दौरान अप्रैल 1984 में हुई विश्व हिंदू परिषद की धर्म संसद भी एक अहम पड़ाव था। जिसमें राम मंदिर को लेकर निर्णायक आंदोलन छेड़ने का फैसला किया गया था। जुलाई 1984 में अयोध्या में एक और बैठक हुई जिसमें महंत अवैद्यनाथ को श्री राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का अध्यक्ष बनाया गया। यहां दो और फैसले हुए जिसमें भारतीय जनता पार्टी के हिस्से मुद्दे को लेकर राजनीतिक जिम्मेदारी और विश्व हिंदू परिषद को सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर इस आंदोलन का दायित्व मिला. दोनों संगठन अपने कार्य में लग गए। 1989 में जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ताला खोलने का आदेश दिया और विश्व हिन्दू परिसद ने ताला खोलने के साथ-साथ राम मंदिर की आधारशिला भी रख डाली।

इन दिनों आंदोलन का स्वरूप बदल चुका था। पाले बदल चुके थे। फिर आई राम मंदिर आंदोलन के इतिहास की तारीखों में सबसे महत्वपूर्ण 1990 और 1992 की वो तारीख, जब यह आंदोलन अपने दहलीज पर खड़ा था। ये बातें 25 सितंबर 1990 से पहले महज एक कल्पना थी। लेकिन 1990 में 25 सितंबर को सोमनाथ से शुरू हुई यह यात्रा इस आंदोलन की तस्वीर बदलने वाली थी। प्रतिदिन लगभग 300 किलोमीटर की यात्रा कई जनसभाओं को संबोधित करने के लक्ष्य के साथ बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जन समर्थन के लिए यात्रा तो निकाल ली मगर उसके बाद जो हुआ उससे वो अनभिज्ञ रहे। गुजरात से निकली इस यात्रा को अगले 35 दिनों में अयोध्या पहुंचनी थी। इस यात्रा को भारी जन समर्थन मिला। देशभर से लाखों कार सेवक अयोध्या में मंदिर निर्माण की प्रतिज्ञा लिए अपने घर से बिना कुछ सोचे निकल चुके थे। जन समर्थन का इतना बड़ा सैलाब था कि सरकारें हिल गई। चंद लोगों की मुट्ठी भर की पार्टी ने देश के दो सबसे बड़े राज्यों के सरकारों की नींद छिन ली। नतीजा हुआ कि रथ यात्रा को बिहार में कानून के ओट में रोक दिया गया। जिससे 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचने की इच्छा पूरी नहीं हुई। इधर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने अयोध्या में प्रवेश पर रोक लगा दी। बावजूद इसके रथ तो अयोध्या नहीं पहुंची लेकिन कारसेवक पहुंच गए। शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। विवादित स्थल के आस-पास भीड़ पर रोक लगाने के लिए धारा 144 लागू कर दी गई। लेकिन मतवाले किसकी सुनते है। शहर में भारी संख्या में जवान तैनात थे। फिर भी देश के अलग-अलग हिस्सों से जुटे लाखों कार सेवकों ने ना सिर्फ अयोध्या मे प्रवेश किया बल्कि उस विवादित ढांचे पर भगवा झंडा लहरा दिया। यह आंदोलनकारी नेताओं और कार सेवकों की पहली जीत थी। लेकिन यह इतना आसान नहीं था जितना कि सुनने में लगता है। कारसेवकों ने ढांचे पर झंडा तो लहरा दिया मगर वहां अफरातफरी मच गई। जिसको लेकर पीएसी के जवानों ने कार सेवकों को खदेड़ने के लिए गोली चला दी। इसमें कई कार सेवकों की मौत हो गई। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार गोली तत्कालीन मुख्यमंत्री के आदेश पर चलाई गई थी। उसके बाद फिर क्या था, ये मामला इतना तूल पकड़ चुका था कि आंदोलन को अब साम दाम दंड भेद आदि के जरिए जारी रखा जाए और फिर से 6 दिसंबर 1992 को मंदिर निर्माण के लिए कार सेवा का आह्वान किया गया। इस बार लोगों की संख्या का कोई आंकड़ा नहीं था। मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो लाखों कार सेवक बीजेपी, वीएचपी और बजरंग दल नेताओं के नेतृत्व में अयोध्या पहुंचे और विवादित ढ़ांचा गिरा दिया गया था।

विवादित ढ़ांचे की दास्तां

थोड़ा रुकते हैं। इसलिए क्योंकि कहानी के प्रवाह में हम आगे बढ़ गए। लेकिन पीछे इस कहानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा छूट गया है। बात है 1992 के उन दिनों की जब मस्जिद गिराया नहीं गया। उन दिनों एक अफवाह उड़ रही थी, कि विश्व हिन्दू परिषद द्वारा 9 जुलाई 1992 को विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण शुरू करेगी। बाद में यह साफ हो गया कि ये सिर्फ अफवाह तो नहीं थी। विश्व हिन्दू परिषद द्वारा मंदिर के लिए गुपचुप तरीके से 100 फुट लंबे और 80 फुट चौड़े एक चबूतरे का निर्माण किया जा रहा था। यह निर्माण 2.77 एकड़ के जमीन के उस टुकड़े पर हो रही थी जिसे सरकार को अधिग्रहित कर दिया गया है। इस बीच बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसका फायदा राम मंदिर को हो रहा था। केंद्र की मिली जुली कांग्रेस सरकार अपने मुद्दे में उलझी थी, राज्य की बीजेपी सरकार को भी मुद्दे चाहिए थे। 9 जुलाई 1992 को शुरू हुआ यह कारसेवा 26 जुलाई तक, देश में अलग अलग मंचों पर मुद्दों को उछाला जा रहा था। संसद, चौराहों और खास कर अयोध्या में चर्चा सिर्फ राम मंदिर। माहौल इतना गर्म हो गया कि ये तनाव दिन प्रति दिन बढ़ता गया। केंद्र ने शहर में सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ा रही थी लेकिन इसका असर राम मंदिर निर्माण कर रहे कारसेवकों पर नहीं हो हुआ। गति इतनी तीव्र थी की टकराव निश्चित था और मध्यस्था के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंदिर निर्माण कार्य में रोक का आदेश दिया। इस आदेश ने आंदोलन के लिए चिंगारी का काम किया। हाईकोर्ट के इस आदेश के बाद दोनों पक्षों के राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच टकराव जारी था। मामला हाईकोर्ट में था जिसपर 22 जुलाई कों सुनवाई होनी थी। कोर्ट ने फैसला दिया कि इन मुद्दों को खत्म करने के लिए खंडपीठ के गठन की पेशकश इस शर्त के साथ की सरकार निर्माण रोकेगी और 26 जुलाई को काफी मशक्त के बाद मंदिर निर्माण का कार्य रोका गया। लेकिन कारसेवा जारी रही। इसके चार महीने बाद उस विवादित मस्जिद को ढहा दी गई।

राजनीति का कानून

इतिहासकार कहते है, बाबरी मस्जिद का निर्माण 1528 में हुआ था, लेकिन उसके कई सालों के बाद 1813 में हिन्दू संगठनों ने इस पर दावा किया। मेरे हिसाब से समय के इतने लंबे गैप के पीछे मुस्लिम आक्रांताओं का भारत पर दबदबा होना है। क्योंकि राम मंदिर से जुड़े मामले 1885 से अंग्रेजों के दस्तावेजों में भी मिलते है। ऐसे में अगर आप इस आंदोलन की समय सीमा को आंकेगें तो पता चलेगा की यह मामला 1528 से लेकर 2024 तक अपने कई किस्सों के संघर्ष में उत्थान और पतन के लम्हों को समेटे हुए है। इस दौरान यह 102 साल फैजाबाद जिला अदालत, 23 साल इलाहाबाद हाईकोर्ट और 9 साल सुप्रीम कोर्ट यानी की करीब 134 सालों तक लंबित रहा है। 200 सालों के लंबे इस मामले का 134 साल सिर्फ अदालतों में बीता और बाकी के दिन राजनीति में। मस्जिद  निर्माण के करीब 200 सालों बाद जब राम मंदिर का यह मुद्दा 1813 में पहली बार सामने आया। तब किसे मालूम था की यह चिंगारी भले ही आज कमजोर हो, लेकिन आने वाले समय में इसके ताप से सत्ता हिल जाएगी, सरकारें बनेगी और और टूट जाएगी। किसे मालूम था 500 सालों बाद जब यह मुद्दा देश के लोकतंत्र को एक नया नजरिया देगा। खैर शब्द भावना व्यक्त करने में पीछे रह जाती है। 1813 के बाद से ही राम मंदिर मुद्दा बन गया। यह धार्मिक आंदोलन कब सामाजिक और फिर राजनैतिक आंदोलन में बदल गई इसकी भनक किसी को नहीं लगा। 72 सालों के बाद 1885 में  पहली बार मामले को न्यायालय में गया। फैजाबाद की जिला अदालत में महंत रघुबर दास अर्जी लगाई। उनकी मांग थी कि जहां राम की पूजा की जा रही है, उस चबूतरे पर छतरी लगाया जाए और कोर्ट ने याचिका ठुकरा दिया। जिसके विरोध में दंगे होने लगे। वक्त गुजरता गया, आंदोलन अपनी पैठ बनाता गया। लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी थी। अयोध्या में दंगे भड़क रहे थे, या भड़काए जा रहे थे। इसका कोई हिसाब नहीं था। अंदर ही अंदर यह इतना मजबूत हो रहा था कि 1934 में दंगे में शामिल लोगों ने बाबरी मस्जिद का कुछ हिस्सा तोड़ दिया सरकार अंग्रेजों की परिणाम हुआ कि विवादित स्थल पर नमाज बंद कर दी गई। यह पहली जीत हो सकती थी, लेकिन परिस्थित ऐसे थे कि मामला थोड़ा ठंड हो गया, लेकिन यह सिर्फ दिखने और दिखाने के लिए था। जिसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुस्लिम पक्ष ने दावा किया कि बाबरी मस्जिद में केंद्रीय गुंबद के नीचे हिंदुओं ने रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी। यह घटना 1949 की है। स्थल पर अफरातफ़री हो गई और किसी ने मुख्य दरवाजे पर ताले लगा दिए। इसके 7 दिन बाद फैजाबाद कोर्ट ने बाबरी मस्जिद को विवादित भूमि घोषित कर दिया। अब यहां कुछ भी नहीं हो सकते थे। ना तो पूजा और ना ही नमाज। फिर क्या था 1950  हिंदू महासभा के वकील गोपाल विशारद ने फैजाबाद जिला अदालत में याचिका दाखिल की। जिसमें रामलला की मूर्ति की पूजा का अधिकार मांगा गया। कोर्ट ने अर्जी पर तत्काल सुनवाई नहीं की। लेकिन इसके बाद नियमित अंतराल पर कोर्ट में कई याचिका दर्ज कराए गया। जिसमें 1959 में निर्मोही अखाड़े ने विवादित स्थल पर मालिकाना हक जाताना, 1961 में  सुन्नी वक्फ बोर्ड (सेंट्रल) द्वारा मस्जिद व आसपास की जमीन पर अपना हक जाताना आदि शामिल थे। 

अब एक तरफ आंदोलन चल रहा था और दूसरे तरफ अदालतों में सुनवाई। आंदोलनकर्ता अपने पक्ष में लोगों के जन समर्थन इक्कठा कर रहें थे । तभी 1986 फैजाबाद कोर्ट ने मुख्य दरवाजे का ताला खोलने का आदेश दिया और उसके एक साल बाद 1987  में पूरा मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट को ट्रांसफर कर दिया। मामला अब जिला अदालत में नहीं हाई कोर्ट में था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1989 में सुनवाई के दौरान इतना ही कहा की विवादित स्थल पर यथास्थिति बरकरार रहे। लेकिन आंदोलन अब बड़ा हो गया था। जिसके इरादे अब बड़े हो चुके थे। खैर 10 साल बाद यानी 2002 से इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित ढांचे वाली जमीन के मालिकाना हक को लेकर दायर याचिकाओं पर फिर से सुनवाई शुरू की और 2010 में इस पर फैसला सुनाया। फैसले में  इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित स्थल को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के बीच तीन हिस्सों में बराबर बांट दिया। यह तीन जजों के फैसले में 2:1 की बहुमत का फैसला था। लेकिन राम भक्तों ने इतने के लिए यह लड़ाई नहीं ठानी थी। नतीजा हुआ किहाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। जिस पर  2011 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर  सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने के बाद 2018 में इस विवाद से जुड़ी सभी याचिकाओं पर सुनवाई शुरू हुई और 6 अगस्त 2019 से सुप्रीम कोर्ट में इस विवाद पर लगातार 40 दिन तक सुनवाई की गई। जिसके बाद 16 अक्टूबर 2019 को दोनों पक्षों  की दलीलें सुनने के बाद  सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।

इसके बाद भी किस्से बाकीं है मगर ये दास्तां यहां खत्म हो गई थी। बाकी चीजें तो महज एक उत्सव है।

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