जब बात बिहार के विकास की होती है तो एक चिज का जिक्र आम तौर पर हर कोई करता है। इसके निवारण के लिए जनता से वादे भी किये जाते है। मगर इसका समाधान सिर्फ़ कागज़ों पर होता है। या ये कहें कि सत्ताधारियों के सत्ता में आने और दुसरे को हटाने के लिए एक अचूक अस्त्र है। ये बात हो रही बिहार के 76%आबादी की जँहा कब बाढ़ घर के दहलीज पर दस्तक दे दे किसी को नहीं मालुम ।एक साधारण सी बारिश भी इनकों घरों से बेघर करने के काफ़ी होती है। लेकिन आजादी के दशकों बाद भी ये उस समस्या से लड़ रहें है जिनका समाधान संभव है। मगर सत्ताधारी और स्वार्थी लोगों के आगें ये बेबस है। ऐसा भी नहीं है की इस समस्या के निदान के लिए कार्य नहीं किये हैं मगर ऐसा कहना कि इसको प्रधानता दी गयी है,उनके साथ नाइंसाफ़ी होगी जो प्रती वर्ष बाढ़ के विनास की अलग अलग किस्सों में एक किरदार के तौर पर सूमार होते हैं।सरकारी व्यवस्थाएं तो कागज़ पर लाखों लोगों की जान माल की वचाव कर लेती है मगर जमीनी अस्तर पर करोड़ो लोग भगवान भरोसे होते हैं।
हजारों लोग घरों से बेघर हो गए होते हैं। और सैकड़ों लोग मौत के मुहँ में समा चुके होते हैं। गांव से लेकर शहर तक पानी पानी ही होती है जिसमें लोगों की आशायें,मेहनत,और घर की सूख शांति डूब रही होती है।हजारों ऐकड़ की उपजाऊ भूमि पुरी तरह से बर्बाद हो चुकी होती है और इसके बचाव और राहत के लिए सरकार हवाई सर्वेक्षण कर एक किलो चूड़ा के साथ अपनी सम्वेदना व्यक्त करने के अलावा कुछ नहीं कर पाने की घड़ियाली आंसू बहाती है।और अपने अगले चुनाव के लिये अपने आपको एक समस्याएँ से निजात पा जाती है और अपने साथी को सत्ता में आने के लिए एक मुद्दे से पहचान करवाने में पीछे नहीं रहती ताकी वह अगले चुनाव में उसे भुल ना जाये। और जनता राम भरोसे। सरकार के इस सम्वेदना को भी जरुरतमंद लोगों तक पहुचने के लिए बड़ी मसक्त करना पड़ता है। सरकार का आम जनता के प्रति यह रवैया और वोटबैंक की राजनीति ने जनता को ठेकेदारों और राजनैतिक चाटूकारतों के हाथ का खिलौनों बना दिया है। इन लोगों ने स्वार्थी पन के कारण यँहा जनता सिर्फ़ दर्शक की भुमिका निभाते हैं।ये ऐसे तटबंधों का निर्माण करतें हैं जो बाढ़ से पहलें ही टुट जाती हैं। लेकिन सरकार इन पर कारवाई करने के बजाय,सरकारी खज़ाने से लाखों रुपये फ़िर से आबंटित कर दिया जाता है इनकी मरम्मत के नाम पर और फ़िर सब मिल बाँट कर पुरानी शिलशिला जारी रखते हैं। इन तटबंधों के कारण ही हिमालय से आने वाली गाद और रेत जो हमारे खेतों के लिए बहुत जरूरी है,खेतों तक नहीं पहुँच पाते हैं।
बाढ़ के समय मिलने वाली राहत पर भी समाज के उनलोगों का आधिकार पहलें माना जाता है जो सुरक्षित होते हैं।आर्थिक और सामजिक रुप से मजबूत होते हैं। और समाज के ऐसे जरुरतमंद लोग जिन्हें आवश्यकता होती है ऐसे राहत सामग्रियों की वो सिर्फ़ वोट डालने और और प्राकृतिक आपदाओं से संघर्ष करने के होते हैं। इनकी गिणती तो होती है लाभुकों में मगर लाभ से इनका रिस्ता सिर्फ़ अंगूठा लगाने या यूँ कहें कि कागज़ पर उदाहरण बनने के लिए होता है। कोई भी सरकार या सरकार के हितैषी इनके मदद को नहीं आता। ये प्राकृतिक आपदाओं और सरकारी नौकरशाहों के चंगुल में फंस कर या तो दम तोड़ देते हैं या फ़िर परिस्तिथियों में समावेश हो मुक दर्शक बने रहते । लेकिन किसी के उपर जूं तक नहीं रेंगता।
परेशानी और कारक
बिहार में बाढ़ के अलग अलग कारक है जो बिहार में बाढ़ की बिभिस्का के जिमेदार है।जिसे हम इस तरीके से समझने की कोशिश करते है। हम आकड़ों कि बात करे तो यह साफ़ तौर पर जाहिर है कि बाढ़ से होने वाले नुकसान साल दर साल बढ़ते जा रहें है। जिसका एक मात्र कारण अत्यधिक मात्रा में तटबंधों या पुल का निर्माण है। क्योंकि 1952 में बिहार का 25 लाख हेक्टेयर भू-भाग बाढ़ से प्रभावित से था मगर आज यह आंकड़ा लगभग 68.8 लाख हेक्टेयर हो चुका है।गौरतलब है कि 1952 में तटबंधों की लम्बाई मात्र 160 किलोमीटर थी और आज यह लम्बाई 3800 किलोमीटर हो चुकी है,जिसमें लगातार वृद्धि जारी है। लेकिन बाढ़ से होने वाली त्रासदी में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आई है।
ऐसे मे यह कहना की तटबंधों का निर्माण बाढ़ की समस्याएँ से निजात दिलाने के लिए उपयुक्त है तो सही नहीं हो सकता। क्योंकि इसके निर्माण के बाद पानी के आबाजही पर अंकुश लग जाती है। और परिणाम यह हो रहा है की अगर तटबंध टूट गई तो बाहर के लोगों का नुकसान हो रहा है और अगर नहीं टूटी तो अंदर के लोगों का नुकसान। मतलब सरकारी खज़ाने से अरबों-खरबों खर्च होने के बाद भी बाढ़ से निजात पाने के उपयुक्त एवं स्थाई रूप से समाधान नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि जब बिहार में प्रतिवर्ष बाढ़ की समस्याएँ उत्पन्न होती है और नदियों पर पुल या तटबंधों का निर्माण करने से इससे निजात नहीं मिल सकता तो क्या बिहार के लोगों को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाय? तो यह सही भी नही है बल्कि हमें और सरकार को इसके अलग-अलग उपायों पर बिचार करने की जरूरत है। और ऐसे उपाय करना जो इससे उत्पन्न हुई समस्याएँ को कम कर सके या निजात दिला सके। क्योंकि बिहार में बाढ़ को रोकना असंभव है। ऐसे में अगर बाढ़ के विकरालता को लेकर पुराने कारकों का अधययन किया जाय तो मालुम होगा कि नदियों में रेट और गाद के स्तर में लगातार हो रहें वृद्धि प्रमुख कारण है। और अगर "फ्लड मिटिगेशन" के सिध्दांतों को समझें तो भी यही परिणाम मिलेंगे की अगर नदियों के पेट से रेत और गाद की सफाई कर दि जाती है तो बाढ़ के दुस्प्राभव को सिमित किया जा सकता है। और शायद यही वजह है कि पहले जब बाढ़ आती थी तो नूकसान ज्यदा नहीं होता था। क्योंकि तटबंधों की कमी के कारण जब बाढ़ आती थी तो वह अपने साथ लाई गाद और रेत को मैदानी क्षेत्रों में उड़ेल देती और नदी नाले तालाबों में बसाहटों से भर जाती और तटबंधों या रूकावट नहीं होने के कारण आसानी से बाढ़ का पानी जल्दी उतर जाता । लेकिन जैसे जैसे शहरीकरण का विकास होता गया और तटबंधों का निर्माण बढ़ता गया और इसके संख्याओं में वृद्धि होने लगी, नदियों में गाद और रेत की मात्रा में वृद्धि होने लगीं। और परिणाम यह हो रहा है कि एक साधारण सी बर्षा भी नदियों के जलस्तर में वृद्धि करने के लिए काफ़ी हो रही। और जैसे-जैसे बर्षा बढती,पानी में वृद्धि होने लगती,आस पड़ोस से पानी नदियों में आने लगता, या छोड़ा जाने लगता परिणामस्वरूप पहली बर्षा से ही नदी नाले,खेत खलिहान पानी में डूब जातें हैं। इसलिए सरकार को चाहिए की तटबंधों का निर्माण के साथ साथ नदी नाले की सफाई पर भी ध्यान दे। गाद और रेत के बड़े बड़े टीलों की सफाई करे ताकी नदियों का पानी नदियों के रास्ते ही समुद्र में चली जाय। बड़े बड़े तटबंधों के जगहों छोटे छोटे तटबंधों का निर्माण करना चाहिए ताकी नदियाँ अपने साथ लाई अवसाद आसानी से अपने मैदानी इलाकों में उड़ेल सके और पानी के आवाजाही पर रोक ना लगें। हिमालय में वर्फ पिघलने, बिहार और नेपाल में लगातर बर्षा, अत्यधिक मानसूनी वर्षा, जल निकासी की उपयुक्त व्यवस्था न होना, वैश्विक तापमान अन्य ऐसे कारक है जो बिहार और देश के अलग-अलग हिस्सों में बाढ़ के कारक बनते है।
उपाय और प्रयास
अपने भौगोलिक स्थिति और बनावट के साथ साथ अलग-अलग नदियों के मैदानी इलाक़ों में बसने के कारण बिहार में बाढ़ को रोकना संभव नहीं है।लेकिन बेहतर प्रयास कर आम जन जीवन को इसके वजह से होने वाले तबाही और जान माल के नुकसान से बचाया जरुर जा सकता है। क्योंकि बाढ़ बिहार के निवासियों के लिए बरदान भी है। यँहा के ज्यदातर लोग कृषि पर निर्भर रहते हैं और बाढ़ के साथ आने वाली मिट्टी,गाद,और सिल्ट खेतों के उर्वरक क्षमताएं बढ़ाने का कार्य करते हैं, और अपने साथ मछलियाँ भी लाती है जो मत्स्य पालन के लिए फायदेमंद साबित होता है।राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के द्वारा देश की 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़ से प्रभावित माना गया है। जिसमें असम,बिहार ,पश्चिम बंगाल अधिक प्रभावित है लेकिन चूंकि उत्तर भारत की अधिकांश नदियाँ भारत के उत्तर -पश्चिम से भी होकर गुज़रती है। परिमामस्वारूप उत्तर पश्चिम के कुछ राज्य जैसे पंजाब और उत्तरप्रदेश में भी ये नदियाँ बाढ़ कारण बनती है। तो दक्षिण भारत में आसमिक बर्षा के साथ साथ अत्यधिक मानसूनी वर्षा भी बाढ़ का कारण बन जाती है।
बाढ़ अपने साथ कई तरह के आपदाएं भी लाती है। जो मानव के साथ साथ प्रकृति का भी नुकसान करते हैं। ये अपने साथ साथ कई तरह की बिमारी,जान माल की नुकसान और साथ साथ देश की आर्थिक रुप से कमजोर करती है। क्योंकि देश की अर्थवयवस्था में लगभग 17% हिस्सेदारी कृषि क्षेत्र का है हालांकि इसमे कमी आई है। जिसके अन्य बहुत से कारक है लेकिन एक मुख्य कारण बाढ़ भी है। बार बार बाढ़ आने से देश की खास कर बिहार कि अधिकांश कृषि योग्य भूमि साल के चार पाँच महीने जलमग्न ही रहते हैं। जँहा खेती की कोई गुंजाइश नहीं होती। और कृषक सिर्फ़ मुह निहारता रहता। अगर हम आकड़े को देखे तो हमे मालुम होगा कि आज़ादी के समय तक कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में लगभग 55% हिस्सेदार था मगर आज सिर्फ़ लगभग 17%रह गई है।यही नहीं इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर अब भी कम हुयें है। वर्तमान में यह क्षेत्र भारत के लगभग 53% आबादी को रोजगार प्रदान करता है। जो एक औसत आकड़े है। गौरतलब है कि बाढ़ अपने साथ साथ सिर्फ़ आपदाएं नहीं लाती बल्कि यह लोगो को अवसर भी प्रदान करता है।नदियाँ अपने साथ अवसाद लाती है जो बाढ़ के समय बाढ़ के पानी के साथ मैदानी क्षेत्रों में आसानी से पहुँच जाती है और कृषि भूमि को और भी उपजाऊ बनाती है। तथा यह मैदानी भागों में जल संभरण का कार्य भी करती है। इसके साथ साथ ऐसे उधोग जो कृषि के सहायक के रूप में मे आते हैं,जैसे मत्स्य पालन, मखाना उद्योग आदी को भी लाभ मिलता है। फ़िर भी बाढ़ को नियंत्रित करने एबं उससे अधिक से अधिक फायदे उठाने के लिए इसके प्रबंधन का प्रयास किया गया है।
जो इस प्रकार है।
1.राष्ट्रीय जल नीति 2012:-
इसके अंतर्गत बाढ़ या सुखे के समय जल संबंधी आपदा को रोकने के लिए प्रयास किये जाते है। जिसमें जल के भंडारण और जल निकासी पर ध्यान दिया जाता है। जिसके अंतर्गत जल संसाधनों के नियोजन, विकास और प्रबंधन की इकाई के रूप में नदी के जल का इस्तेमाल किया जाना है । और किसी खास जगह जल का भंडारण नहीं किया जाय ताकि बड़ी बड़ी नदियाँ जैसे गंगा आदि में जल के स्तर को नियंत्रित किया जा सके।
2. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005:-
इसके अंतर्गत राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण एवं राष्ट्रीय आपदा मोचन बल का गठन किया गया है। जो बाढ़ के समय जरुरतमंद लोगों का बचाव का कार्य करते हैं। ये ऐसे लोगों जो बाढ़ में फसे होते हैं या फिर फसने की सम्भावना होती उनको सुरक्षित जगहों पर पर ले जाते हैं। तथा इनके रहन सहन, खान पान की देख रेख करतें हैं।
3.नदी जोड़ो परियोजना:-
इसका तात्पर्य छोटी-छोटी और मौसमी नदियों को बड़े बड़े नदियों में जोड़ने से है।सामान्य तौर पर इसका प्रयोग कृषि काम के लिए किया जाता है। मगर बाढ़ के समय इन्हीं छोटी-छोटी नदियों के सहारे बाढ़ के पानी की निकासी की जा सकती है। और बाढ़ के स्थिती को नियंत्रित किया जा सकता है। क्योंकि अकसर देखा जाता है की देश का एक भूभाग पुरी तरह डूब चुका होता है और दुसरा पानी की एक बूँद को तरस रहा होता है। ऐसे में इस परियोजना के सहारे पानी का सही उपयोग हम अपने उपयोगिता के अनुसार कर सकतें है। और इसी के सहारे हम पानी का भण्डारण भी कर सकतें है और उसका उपयोग सुखे के समय कर सकतें है। हालांकि इसका प्रयोग अभी पुरी तरह से नहीं हो पा रहा है। क्योंकि इसके लिए संसाधनो,और प्रोद्योगिकी का उपयोग प्रभावी ढंग से संयोजित करने की आवश्यकता है जो अभी नहीं हो सका है।
4. प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करना:-
इसके तात्पर्य लोगों को प्रशिक्षित एवं जागरुक करने से है। ताकि बाढ़ के समय वो अपने तथा अपनों का बचाव कर सकें,और उपयुक्त कदम उठा सके और अफवाहों से बचे रहें।
अन्य उपाय जो बाढ़ प्रबंधन के लिए उपयोगी है।
1.अवसंरचनात्मक तैयारियाँ,
2.संस्थागत स्तर्कता,
3.ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन।