Saturday, 19 March 2022

द कश्मीर फाइल्स

 


क्या 3 घंटे ,एक कहानी जिसके बहुत से पहलू हो उसे कहने के लिए पर्याप्त है? सवाल तो यह भी उठता है की जो हुआ उसके के लिए सिर्फ 3 घंटे? क्योंकि जो दिखाया गया है वो तो छपे हुए किस्से है लेकिन उन किस्सों को  कौन बयां करेगा जो छपे ही नहीं ? महज कुछ कुछ घंटों में सालों की हकीकत को दिखाया नहीं जा सकता। कश्मीर के इतिहास में या फिर यूं कहे की भारत के इतिहास में बहुत सी ऐसी घटनाएं घटी है जिसके अलग अलग पहलुओं में सिर्फ उसी का प्रचार प्रसार किया गया जिससे किसी राजनीतिक पार्टी , संगठन ,समुदाय जाती या फिर समाज के किसी विशेष व्यक्ति वर्ग या व्यक्ति का स्वार्थ छिपा हो। 


जिसका परिणाम ये हुआ है कि अपने आप को इतिहासकार कहने वाले एक वर्ग ने समय, सत्ता और लोकप्रियता को आधार मानकर जिस काल्पनिक कहानी की रचना की है आज हम उसे पढ़कर सुनकर लोगों से अपनी पीठ थपथपाते है। इस बात को समझने की जरूरत है किसने क्या लिखा? किसके लिए लिखा ?क्यों लिखा ? मकसद क्या था लिखने का ? आदि बहुत से सवाल है जिसके उत्तर जानने के लिए आपको इतिहास के उन पन्नों को खोलना पड़ेगा जो इतिहास लिखने वालों ने लिखी ही नहीं। इसके पीछे की वजह क्या हो सकती है ? 
किसी ने कहा है की किसी को अगर जानना है तो पहले यह जानो की वो कौन सी किताब पढ़ता है । लेकिन अगर वो किताब ही नहीं पढ़ता फिर कैसे हम किसी को परख सकते है? एक ओर हमे बताया जाता है की हम विश्व गुरु थे, जिसके साक्ष्य वर्तमान में नहीं मिलते? हमे बताया  जाता की मुगल क्रूर सासक थे लेकिन उनके महान गाथाओं से इतिहास के पन्ने भरे पड़े है। तो सवाल यह आता है की सही कौन है ? इन इतिहासकारों को  पढ़ने के बाद लगता है की इन लोगों ने  भारत के इतिहास को तीनों भागों में बाँटा है ,पहले में मुग़लों की रचनात्मकता , उनकी महानता, प्रजा के प्रति दयालुता आदि। दूसरे भाग में अंग्रेजों का भारत के प्रति देशभक्ति और उनके सहयोगियों की  स्वामीनिष्टता और तीसरे एवं अंतिम भाग में आजादी के असली योद्धाओं की उदारता जिसमे पार्टी और परिवार की प्रधानता के साथ साथ एक खास धर्म के प्रति धर्मनिरपेक्षता की कहानियों के अद्भुत संग्रहण को इतिहास का नाम दे दिया गया है। 


मगर शायद वो इस चीज से अनजान रह गए की लिखने वाले वाले का भी इतिहास होता है जो पढ़ने वाला निर्धारित करता है, उस समय परिस्थिति में जीने वाला निर्धारित करता है। भले ही राजनीतिक पार्टियों ने ,सो कॉल्ड इतिहासकारों ने इस चीज को बदलने की भरपूर कोशिशें की मगर सच नहीं छिपता वो बाहर निकल ही जाता है।32 सालों के बाद आज एक और सच बाहर आया है जिसके जिम्मेदार हर कोई है क्योंकि जब घटना घटी थी हममें से कितने लोगों ने आवाज उठाई । एक कारण हो सकता है की हम नहीं थे उस समय ,लेकिन जब हम चुनाव सिर्फ जाती धर्म समुदाय  आदि के नाम पर लड़ते है और वोट भी देते है तो क्या कश्मीरी हिंदूओं का मुद्दा उठाना लाजमी नहीं था ? वो भी तो इन्हीं से जुड़े है।       


आज 32 सालों के बाद जब कोई इतिहास के उन घटनाओं को कोई बताने की कोशिश की है तो हर कोई अपनी रोटी सेकने में लगा है। इतिहास बताने वालों का इतिहास भी छुपा नहीं है लेकिन अभी समय अनुकूल होने के नाते बाते उनके पक्ष में चली जा रही ,खैर ये मुद्दा अलग है अभी बात करते है धर्मनिरपेक्षता की जिसकी चर्चा अभी हर कोई कर रहा है । मुझे ऐसा लगता है कि हर लोकतांत्रिक देश में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा उसके हिसाब से तय होती है। 
क्योंकि जहां किसी  एक देश में किसी खास धर्म को लेकर विश्व का नजरिया आशावादी होता है उसी धर्म के प्रति दूसरे देश  में बदल जाती है। इसके बहुत से उदाहरण है। एक विशेष धर्म को मानने वाली लड़की के साथ सरेआम अत्याचार होता है तो हम कैन्डल मार्च करके अपना पल्ला झार लेते है और वही चीजें अगर दूसरे के साथ हो तो कुछ लोग है सत्ता में, समाज में, आदि विश्व के  हर कोने में है  जो धर्म निरपेक्षता की दुहाई देने में लग जाते है । राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही है। लेकिन एक भी पार्टी नहीं है जिसने कश्मीर के उन लोगों के लिए कुछ किया जिन्हें जबरन पलायन करना पड़ा । सत्ता के इन लालची नुमाइंदों ने धर्म ,जाती, संप्रदाय के सीढ़ी पर चढ़कर कुर्सी तो हासिल कर ली मगर तिजोरियाँ सिर्फ अपनी भरी । 



अलग अलग धर्मों के ठेकेदारों ने सिर्फ लोकतंत्र की मजबूरियों का फायदा उठाया। ये कहना की सभी ने एक स काम किया गलत होगा मगर किसी को पूरा क्रेडिट दे देना भी  तो सही नहीं होगा। क्योंकि पिछले 32 सालों में सभी पार्टी की सरकार आयी लेकिन न्याय का नामकरण तक नहीं हुआ। बलात्कार, मौत, पलायन ,शिक्षा , बेरोजगारी आदि के पीछे कौन है ? कुछ लोग जो इसके हमदर्द बनते  फिरते है उन्हे आंकड़ों की सही जानकारी भी है? देश की मीडिया आज मूवीज के रिलीज के बाद जिस तरह कश्मीर के उन हिंदुओं का पक्ष रख रही है घटना के दिनों में कहाँ थी ?आखिर क्या वजह थी जो घटना के कुछ पहलुओं को छिपा लिया गया। देश को एकजुटता की पाठ पढ़ाने वाले कहाँ थे ? छोटी छोटी बातों पर संसद का बॉयकाट करने वाली पार्टी और लोग जो हमेशा संविधान की दुहाई देते है परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से वो उस घटना के हिस्सेदार नहीं है।


मैं फिल्म की सारी बातों को नहीं मानता लेकिन वर्तमान में हो रही घटना, जिसमे एक खास धर्म को हाशिये पर ले जाने या ये कहे की धकेलने का प्रयास दिन दोगुना और रात चौगुना की गति से अनवरत जारी है, यह सोचने पर मजबूर जरूर करती है कि शांति को मानने वाले इस देश में ऐसे नरसंहार किसलिए? यह सवाल तब और भी वाजिब होता है जब देश के किसी सिनेमा घर में कोई फिल्म  जबरन दिखाई जाती है क्योंकि उसमे किसी खास धर्म को अपमानित किया गया होता है तो किसी फिल्म  को रिलीज होने से पहले सेंसर और असमाजिक तत्वों का हवाला देकर दरकिनार करने पूरा प्रयास किया जाता है और इन सबों से बचने के बाद जब यह परदे पर आती है तो इसे परदे नहीं मिलते है। 
फिल्म को एक निर्धारित प्रचार के तरीके से अलग रास्ता खोजना पड़ता है। बिना किसी कहानी की फिल्मों के हजारों बैनर वाले सिनेमा घरों में एक बैनर तक नहीं टंगा होता है। कहानी को रूढ़िवादी बताकर दुष्प्रचार किया जाता है। अलग अलग तरीकों से फिल्म को रोकने की हर कसर निभाई जाती है । मगर ऐसे में  हर सवालों के जबाव तो सिनेमा घरों में गूंज रही ‘’भारत माँ के जयकारों ‘’ की आवाज देती है। बिना किसी प्रचार के जब फिल्म कई दिनों तक हाउसफूल रहती है और हर शख्स का ये पूछना की आपने ये फिल्म देखी और अगर नहीं देखी तो आज जाकर देखिए तो एक बाद दिल जरूर कहता है की कुछ तो है जिसे हमसे छिपाया गया है । 
हालांकि उसका जबाव फिल्म में पूरी तरह नहीं मिलती मगर सोचने को विवश जरूर करती है कि सरकार ,मीडिया, लोग क्या सिर्फ तमाशे देखने के लिए थे? हजारों बेघर लोगों ,मासूमों , परिवारों आदि की चीखे आपसे बहुत सवाल पुछ रहे होंगे जिसके जबाव में सिर्फ आपको अफसोस होगा।  क्योंकि एक फिल्म जिसके सभी पक्ष यह सोचने को मजबूर कर दे की उस रात गुनाह सहने वाला आज 32 सालों के बाद भी उन नापाक इरादों वाले के प्रति प्रेम का भाव रखता लेकिन गुनाह करने वाले अपने नस नस में नफरत का भाव रखता है तो अंतर समझ में आती है । 
बाकी फिल्म की सभी जानकारियों से तो आप अवगत होंगे ही क्योंकि मुझे लगता है की उन जानकारियों को जानना हर देशवासियों का हक है चाहे वो किसी भी धर्म ,जाती या संप्रदाय का क्यों न हो। क्योंकि कहानी भारत के अस्मिता की है जिसे कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के कारण मिटाने की कोशिश में लगे है। इनका पैर धीरे धीरे पसरता जा रहा है और एक दिन आएगा जब हमे अपनी पहचान छिपाने की मजबूरी होगी लेकिन उससे पहले हम उस हकीकत को जान ले ताकि उनके नापाक मंसूबों पर पानी फेरा जा सके। इस बात को भी झूठलाया नहीं जा सकता की हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे नहीं है। और  यही एक वजह है जिसके कारण आज विश्व जहां नतमस्तक हो जा रहा भारत का तिरंगा अपने आन मान और सान से लहरा रहा होता है। और इस आर्थिक युग में आर्थिक संमपन देश नहीं होने के बावजूद भी विश्व आँख उठा कर नहीं देखता...और यही भारत की पहचान रही है।     


संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

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