Tuesday, 16 May 2023

मुझे चाँद चाहिए ...

 

 


बचपन की कुछ यादें, जो हमेशा ही हमारे जहन मे रहती है उनमे चाँद पाने की तमन्ना पहले स्थान पर है। माँ द्वारा अपने छोटे बच्चे को खान लेने क बदले में चाँद देने का वादा करना, किसी प्रेमी या प्रेमिका द्वारा अपने प्रेम की सीमाओं को एक दूसरे से परे बताते हुए  चाँद दिलाने की भरोसा दिलाना, या फिर किसी आम आदमी द्वारा अपनी तरक्की के ऊँचाई को नापने के लिए चाँद पर जाने की बात कहना । उन महत्वपूर्ण बातों की गारंटी है जिसके लिए हम चाँद को गिरवी रख देते है। तो दूसरे ओर यह हमारे उन काल्पनिक ख्यालों को बार बार एक वास्तविक स्वरूप देने का काम करती है, जिसकी वास्तविकता ही उसका काल्पनिक होना है।

पिछले कुछ दिनों से इस उपन्यास को पढ़ रहा था। पहली पंक्ति से लेकर आखिरी शब्द तक उपन्यास का शीर्षक '' मुझे चाँद चाहिए '' के कई किरदारों से परिचय हुआ। इनमें उन किरदारों से राबता भी हुई  जिसकी रचना सुरेन्द्र वर्मा ने की नहीं है। शायद यही हमारे कहानी का आखिरी सत्य भी है। अपनी तमन्नाओं को लिए, अपने वास्तविकता से जूझते हुए न जाने किस काल्पनिकता की तलाश मे हम जीवन भर खोए रहते है। कभी खुद के कहानी में तो कभी औरों के। इच्छाओं को साथ लेकर जीने की कला हर किसी में नहीं हुआ करती है। मुझे लगता है कि मानव होने के अगर बहुत से फायदे है तो कुछ बड़े नुकसान भी है। इन नुकसान में सबसे बड़ा है मानव का समाजिक बंधनों में बाँधने या बँधने की परंपरा। हालांकि यही वह कारण भी है जो मानव को अन्य प्राणियों से अलग करता है। खैर इस बात को समझते है...  सबसे पहले तो यह है कि हमने विकास के मायनों को बदल दिया है। इसका एक निश्चित मापदंड निर्धारित कर रखा है, जो इसपर खड़ा उतरता है वह सफल दूसरे सभी असफल है। हमने समाजिक, आर्थिक , राजनैतिक, संस्कृतिक आदि बंदिशे तैयार कर रखी है। जो हमें परस्पर एक दूसरे को तुलना करने के लिए प्रेरित और तैयार करता है। यही एक मुख्य कारण है कि हम अक्सर अपने सोचने के दायरे मे सीमित होकर सोचते है। मगर सबसे बड़ी बात तो ये है कि ये दायरे हमने ही निर्धारित कर रखा होता है। ये दायरे क्या है? लोग क्या कहेंगे? मुझसे नहीं होगा। हम आर्थिक रूप से कमजोर है। हम मिडिल क्लास से आते है। हमारे परिवार की ये परंपरा नहीं है। मुझे यह पसंद नहीं कि तुम ऐसा करो। आदि कई सारे विचार जो दरअसल एक मिथ्या ही तो है।  इसकी जानकारी के वावजूद भी हम रोज फँसते रहते है। फिर एक दिन आता है जब हमारा दोष लोगों द्वारा हमारे ही माथे चढ़ा दिया जाता है,और हम उसी चक्र मे फँस जाते हैं, जिससे निकलने की सलाह, हमे उन्हीं लोग से पहले से मिल रही होती है।

उपन्यास की कहानियों और किरदारों का केंद्र कला है। लेकिन इसका आधार समाजिक परम्पराएँ, विचारधाराओं, राजनीति, संस्कृति, और सबसे महत्वपूर्ण कि एक सोच पर निर्मित किया गया है जिसकी लोकप्रियता इसलिए है क्योंकि इसके अधिकांश भाग नेपथ्य में तैयार किए जाते हैं। हमारी लाख कोशिश के बाद भी हम कुछ चीज़ों को इसलिए नकारा नहीं सकते क्योंकि हम ऐसा चाहते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि हमारी इच्छा तो य़ह भी होती है कि हमे हमारी पहचान मिले,वो भी ख़ुद की। फिर तो जैसा सर्किल तैयार हो चुकी है उसी पर घूमना होगा अन्यथा बैलेंस बिगड़ते ही हम एक साइड हो जाएंगे और बारी किसी दूसरे की आ जाएगी। इसके इतर भी एक उपाय है कि हम सर्किल में चलते हुए उस अवस्था पर जाएं जहाँ ना तो किसी का प्रभाव केंद्रित होती होती है और ना ही विकेंद्रित। इस उपन्यास की नायिका भी ऐसा करने का भरसक प्रयास करती है, मगर इस केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण रोक नहीं पाती है। जिसका नतीजा होता है, कि उसकी काल्पनिक तमन्ना एक वास्तविक स्वरूप तो लेती है मगर उसका प्रभाव खत्म नहीं होता। शायद उसके चाँद का स्वरूप वही रहता है। जिसे पाने की तलाश मे वो इतना कुछ कर गुजरती है।

चाँद की चाहत और उसे पाने की तम्मना के बीच कितनी चीजें होती है। ख़ुद का साथ से लेकर लोगों के नाउम्मीदों वाली कुछ उम्मीदें तक। हँसी से लेकर तालियों तक। फ़िर हमे वो वजूद मिलता है जिसके लिए हम पहले, अभी और बाद में ना जाने कितने किरदारों में छुपते, छुपाते किसी मुक़ाम पर पहुँचते हैं। जहाँ से नीचे आने में डर लगता है और उपर जाने की ताकत नही बचती। मेरे समझ से यह उपन्यास उसी का पर्याय। 


मुझे चाँद चाहिए हिन्दी के लोकप्रिय साहित्यकार सुरेन्द्र वर्मा की रचना है, जिसके लिये उन्हें 1996 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
 

संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

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