Saturday, 4 November 2023

बदले या बदलाव की राजनीति ?




केंद्र और राज्य सरकार की मनमानी के बीच कोर्ट भी नहीं आ सका, और बिहार में आखिरकार जातिगत जनगणना सम्पन्न हो गई। धर्मनिरपेक्ष और अलग अलग संप्रदाय, जाति को समान अवसर देने वाला देश ने आधिकारिक रूप से एक बार फिर से कागज पर जातिगत विभाजन देखा और बिहार देश का पहला राज्य बना जहाँ न सिर्फ जातिगत गणना सम्पन्न हुई अपितु परिणाम भी सार्वजनिक किए गए। परिणाम के बाद देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी और वर्तमान में अपनी जमीं टटोल रही कांग्रेस ने मौका देखा और आगामी चुनाव को देखते हुए, अपने तरफ से घोषणा कर दी कि अगर पार्टी सत्ता में आती है,तो राज्य में जातिगत जनगणना कारवाई जाएगी। विशेषज्ञों की माने तो पार्टी की यह घोषणा सिर्फ छत्तीसगढ़ तक सीमित नहीं है।और हो भी क्यों जब पार्टी की पहचान राष्टीय स्तर तक है, फिर चीजें सिर्फ राजकीय स्तर तक क्यों ? हालाँकि यह भूलना नहीं चाहिए कि पार्टी की राष्टीय स्तर तक सीमित रह जाने के पीछे इसी रणनीति का दुष्परिणाम है। जिसका नतीजा है कि पार्टी आज अपनी जमीं तलाश रही है और क्षेत्रीय सत्ता से संतुष्ट होने को विवस है, लेकिन राहें यहाँ भी आसान नहीं है। क्योंकि बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के लिए कर रही प्रयासों में ढील देने के मूड में अभी तो नहीं दिख रहा। मगर बीजेपी की क्षेत्रीय स्थिति भी ठीक नहीं है। वर्तमान में सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी की पहुँच अब राज्यों में समिति होती जा रही है। पिछले चुनाव में उसे कर्नाटक, हिमाचल जैसे राज्यों में मुँह की खानी पड़ी। हालाँकि गुजरात में उसे ऐतिहासिक जीत मिली। मुख्यमंत्री भूपेन्द्र भाई पटेल ने वर्तमान प्रधानमंत्री और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री के सभी रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया। अन्य छोटी राज्यों में पार्टी गठबंधन को जीत मिली। पार्टी के पास जनता को रिझाने के लिए सिवाय राष्ट्रीय नेतृत्व का कोई विकल्प मौजूद नहीं। हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली पार्टी को कर्नाटक में इसी बात का मलाल रह गया कि उसे जनता ने मौका नहीं दिया । कांग्रेस के पास अब खोने के लिए कुछ नहीं है, और पार्टी के पास अब सिर्फ एक विकल्प मौजूद है वो है क्षेत्रीय पहुँच। जिसके लिए पार्टी कोशिश कर रही है। राहुल गाँधी अपने छवि को बदलने का प्रयास कर रहे है, जिसका परिणाम उन्हे आने वाले चुनाव में दिखेगा। कुछ राज्यों में चुनाव होने वाले है। ये चुनाव बीजेपी और कांग्रेस के साथ साथ उन क्षेत्रीय पार्टीयों के भी महत्वपूर्ण है जिनकी महत्वाकांक्षा सिर्फ राज्य तक समिति रह जाना नहीं है। पार्टियां अपने हिसाब से अखारे तैयार जरूर कर रही है, मगर मतदान से पहले ही पार्टियों में दरार हो जाना इस बात के संकेत है, कि जनता क्या चाहती है इसका परिणाम तो चुनाव के बाद आएगा लेकिन कार्यकर्ता की पसंद और चाहत अलग है। जो भविष्य की महत्वाकांक्षा को सहेजे खामोशी से उन फैसलों को स्वीकार कर रही है जो फिलहाल उनके हित में तो नहीं दिख रहा। रात के दो बजे पार्टी कार्यालय के बाहर रात बिताने को मजबूर कार्यकर्ता हो, टिकट नहीं मिलने पर पार्टी का भरोसा नहीं रख पाने वाले जनता से उम्मीद लगा रहे रहे है कि जनता उन पर विश्वास करें, ऐसी विचार रखने वाले नेता हो, या फिर राजनीति समझ से दूर रहने वाली आम जनता हो, इंतजार करती है चुनाव के उस तारीख का जब सत्ता बदल जाएगा। लेकिन इस बदलाव का नतीजा सिर्फ़ कागजी होता है। राजनीति महत्वाकांक्षा का पर्याय बन गया है। सत्ता महज एक बदले की वो तस्वीर बन गई है, जहाँ देखने का जरिया जो भी हो मगर दिखाई सिर्फ वो देता है जो हम नहीं देखना चाहते है। आसान भाषा में कहे तो जिस मंहगाई को आधार मानकर केंद्र की वर्तमान सरकार ने सत्ता पाई आज वो भी इसी से जूझ रही है। मुफ़्त की रेवड़ी के खिलाफ़ रहने वाली पार्टी के घोषणा पत्र मुफ़्त में चीजें देने के वादों से भरे पड़े है। ऐसे परिस्थित में जनता को विकल्प चाहिए जो उसके पास फिलहाल नहीं है। उसकी हालत तो तरबूज और चाकू वाली हो गई है, जहाँ कटना सिर्फ जनता का है। चाहे सरकार किसी की भी हो। लोगों की परेशानी जस की तस बनी रहती है। आज सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक विकास की परिभाषा बदल चुकी है। विकास के ढोल इस तरीके से पिटी जाती है जैसे कि एक एहसान किया जा रहा हो। पिछले दिनों एक मंच पर एक गठबंधन की दो पार्टियां आपस में क्रेडिट के लिए लड़ रही थी। एक आरोप था हम है इसलिए दूसरे का कहना था जब कार्य संयुक्त कार्यकाल में हुआ है तो बातें भी संयुक्त ही होनी चाहिए। मेरे हिसाब से खुले मंचों से ऐसी बातों का होना सिर्फ और सिर्फ ढकोसला है। क्योंकि कुर्सी इन लालची लोगों को मालूम है, जनता को कैसे लुभाना है? और किस तरीके से उन मुद्दों से भटकाना जहाँ जनता इनकी गिरेबान न पकड़ सके। बाकी काम तो चुनावी जुमले कर ही देते है। और मीडिया बस टीआरपी में उलझी रहती है।


राजनीति के इन खिलाड़ियों को सब मालूम है, मगर ये भूल जाते हैं कि "ये पब्लिक है, ये सब जानती है।" शयद यही वजह है कि दिखने और दिखाने के खेल में ये जनता वो भी देखती है जिसे ना दिखाने के लिए ये सब कुछ करते है। आज जब मैं यह लिख रहा हूँ उसके पिछले  दिनों आईआईटी बीएचयू के परिसर में कुछ छात्रों मे एक छात्रा के साथ जबरदस्ती किया। पिस्टल के सहारे की गई हरकते बताती है कि कानून का हाथ भले ही लंबे  हो मगर उसका दायरा समिति हो गया है। जिसे लांघने की योग्ता सिर्फ इतनी है कि किसी राजनेता या उसकी पार्टी  को आपने आर्थिक सहयोग किया हो या फिर आप राजनीतिक रूप से सबल हो। और अगर आर्थिक सबल है फिर आपका गुनाह, बेगुनाही में आसानी से परिवर्तित हो जाती है। ये महज एक कहनी नहीं है, मीडिया की खबरें इसके उदाहरण से भरे है। बस आपको वो देखनी है जो मीडिया नहीं चाहती कि आप देखें। 


कुल मिलाकर देखें तो आज की राजनीति बदलाव की नहीं बदले की है। जहाँ विचारधारा, सिद्धांत आदि के कोई मायने नहीं, मकसद सिर्फ और सिर्फ कुर्सी से है। जिसके परिणाम के लिए भविष्य इंतजार कर रही है। 

संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

केंद्र सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में, इस बार 5 लोगों को भारतरत्न देने की घोषणा की हैं। केंद्र के इस घोषणा के बाद जहां विपक्...