Friday, 28 October 2022

लोकआस्था का महापर्व कहा जाने वाला पर्व, क्या है छठ ?

 "वैश्विक मान्यताओं और प्रकृति संरक्षण का जीवंत प्रमाण है छठ।"

कुछ चीजें  है जिसकी परिकल्पना और कल्पना में कुछ खास अंतर नहीं होता है । लेकिन उसके अतीत के किस्सों से आप उसकी यथार्थ को मान सकते है, या यह कहे की यकीन कर सकते है । जैसे की हमारा पर्यावरण ,आप इसके बारे में जो भी कल्पना करेंगे, वो वास्तव में कम ही होगा। जिसके उदाहरण आप अपने किसी भी किस्से में  देख सकते है । आपके घर के पास का वातावरण आपके लिए आम हो सकता है मगर आपके किसी रिश्तेदार ,दोस्त या किसी अजनबी अतिथि जो रात की अंधेरे से बचने के लिए आपके घर में आश्रय ले रहा है, सुबह जब वो अपने सफर की शुरुआत करेगा तो आपका धन्यवाद करेगा क्योंकि प्रकृति ने आपको इतना अच्छा वातावरण दिया है, जो उसे नसीब नहीं है। 




मगर हम स्वार्थी लोगों ने प्रकृति के इस अनुपम भेंट को महज उपभोग की वस्तु बनाकर छोड़ दिया है । हम इंसानों ने अपने पेट की चिंता कभी नहीं किया क्योंकि प्रकृति ने हमे इस लायक बनाए रखा । लेकिन प्रकृति मानव के  भंडारण की बातों से अनभिज्ञ रह गया । जिसका परिणाम है की आज प्रकृति की सबसे अनुपम रचना ने ही उसे सबसे चोट पहुंचाई है ।  आज प्रकृति का सबसे बड़ा दुश्मन अगर कोई है, तो वो है मानव । जिसके बारे मे यह कहा जाता है की इस प्रकृति की सबसे नायब रचना है । श्रृष्टि के रचनाकारों ने अपनी इस अनुपम रचना को जिस उदेश्य के लिए रचा होगा उसकी वास्तविकता को अगर परखा जाय तो मानव उस इम्तिहान में अपनी तह को संभाल नहीं पाएगा । और लोक आस्था का महा पर्व इसका सबसे बड़ा उदाहरण है । क्योंकि अगर इसकी पूजा विधि को सुव्यवस्थित तरीके से अपनाया जाय तो कही  न कही इसमें कुछ त्रुटि रह ही जाती है , लेकिन आत्मसमर्पण और श्रद्धा के आगे उस त्रुटि को कोई नहीं देखता । क्योंकि कहा गया है भगवान आपके भाव के भूखे होते है न की आपके द्वारा समर्पित की गई सांसारिक वस्तुओं के ।   


लोक आस्था का महापर्व माना जाने वाला यह पर्व महज एक पर्व नहीं है । यह लोगों की आस्था , संस्कार , भावना, अध्यात्म और श्रद्धा का वो  समागम है जिसकी झलक घर के कोने कोने से लेकर छठ के घाट तक देखी जाती है । जिसमे समाजिक ,आर्थिक सम्प्रदायिक ,और जातिगत संभावनाओं की कोई जगह नहीं होती। यह प्रकृति के बदलते स्वरूप का एक ऐसा वर्णन है यह जीसमें प्रकृति के सभी रूप समाहित हैं। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व का प्रतेक पड़ाव प्रकृति के अलग अलग स्थितियों  से पहचान रखती है , जिसे महसूस करना इस पर्व के बिना शायद  संभव नहीं है। भारत का अतीत ,वेदों , पुराणों ,और उपनिषदों में  इस महा पर्व के महात्म के  कई कहानी वर्णित है, जिसका प्रमाण आज आधुनिक काल मे भी मिलता है। जो किंबदन्ती नहीं है । अगर ये किस्से किंबदन्ती होते तो सिर्फ कुछ पन्नों तक सीमित होते है। लेकीन ऐसा नहीं है। देवासुर संग्राम मे देवताओं के विजय के उनकी माँ अदिति द्वारा किया गया तप , भगवान राम द्वारा किया गया राजसूय यज्ञ की सफलता के लिए माँ सीता द्वारा किया गया तप , या फिर पांडवों के लिए द्रोपदी द्वारा किया गया तप इस महा पर्व के पौराणिक साक्ष्य तो है ही मगर आधुनिक काल में भी इसका महात्म छिपा नहीं है । कहा जाता है कि चीतौड़ के शासक महाराणा प्रताप को जब मुगलों से पराजित होकर अरावली के पहाड़ियों मे छिपना पड़ा तो  उनकी विजय के सारे द्वार बंद हो चुके थे । राष्ट और बेटे की इस दशा को देखकर उनकी माँ ने भगवान दिनकर की आराधना की। भगवान भाषकर उनकी पूजा से खुश होकर बेटे और राष्ट की सभी विपदाओं को हर ले गए । और यही कारण है कि छठ माता का एक संबोधन राणा माई के नाम से भी होता है।  

विश्व के बड़े बड़े मंच पर  जब आज इस बात जोड़ दिया जाता है कि हमारा समाज सामाजिक ,आर्थिक,राज नैतिक , आदि रूप से एकत्र हो । हमारा पर्यावरण दूषित ना रहे , प्रकृति के संसाधनों का प्रयोग हम व्यवस्थित तरीके से करें , किसी भी चीज का प्रयोग उसका उपयोग व्यवहारिक हो, ताकी हम प्रकृति द्वारा प्राप्त सभी संसाधन का सदुपयोग करें और आने वाले पीढ़ी के लिए इसकी उपलब्धता सुनिश्चित करें। लेकिन  आज से हजारों साल पहले हमारे ऋषि मुनि ने इसकी प्रमाणिकता  को सिद्ध कर रखी है । इस पर्व ने विश्व को लोकल से ग्लोबल होने तक की सिख दी है, प्रकृति के खुले प्रांगण में बिना किसी झिझक, भेदभाव , ऊँच नीच आदि जो भी ओछपन है उनसे दूर भगवान सूर्य के सभी स्वरूप,सभी अवस्था की उपासना करते हुए नजर आते है। और यह वैश्विक एकता का सबसे बड़ा उदाहरण है। जिसकी आज हम बात करते है । जिस प्रकार इस पर्व की उद्गम की कोई निश्चित कथा नहीं है उसी प्रकार इसका भी प्रमाण नहीं है कि बिहार से होते हुए यह लोक आस्था का पर्व कब  वैश्विक आस्था का केंद्र बन गया। क्योंकि  इसका उलेख न तो किया जा सकता है और न ही किया गया है । 




इस पर्व को ना सिर्फ़ भारत में बल्की पूरे विश्व में मनाया जाता है। लेकिन बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ क्षेत्रों में इसका नजारा देखने लायक होती है। पटना के गंगा घाट पर छठ को महसूस करने और भगवान सूर्य की आराधना के लिए विश्व भर से लोग आते हैं और इस पर्व मे सम्मलित होते हैं। मैथिली और भोजपुरी  लोगों के साथ-साथ यह मगध के  लोगो का सबसे बड़ा संस्कृतिक पर्व है । 

हिन्दी कलैंडर के अनुसार कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष के चतुर्थी तिथि को इस पर्व की शुरुआत होती है तथा सप्तमी तिथि को उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पण के साथ इस महापर्व की समाप्ति हो जाती है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व के पहले दिन नहाई -खाई होता है। दूसरे दिन भगवान सूर्य को खरना का प्रसाद भोग लगाया जाता है। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्पण की जाती है। और पर्व के आख़िरी दिन भगवान उदयमान भाष्कर की उपासना के साथ सूर्योपासना का महापर्व समाप्त हो जाती है। 



छठ पर्व की रीति रिवाज का ज़िक्र इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि यह अब आम हो गया है। इस अवसर पर बनने वाले पकवानों ने राष्ट्रीय अवसर पर एक पहचान बना ली है। बाकी अन्य चीजों का वर्णन अलग अलग जगहों पर आसानी से मिल जाती है। मेरे इस लेख का उद्देश्य छठ पर्व के उन पहलुओं को स्पष्ट करना जो सालों से भारतीय संस्कृति की पहचान है। 

Wednesday, 26 October 2022

छायाचित्र




 कुछ तस्वीरें शब्दों की मोहताज नहीं होती है। अक्सर लोगों से सुना है मैंने कि बोलने या लिखने वालों को हमेशा शब्द कम पड़ जाते हैं। लेकिन एक गूँगा शबीह बहुत कुछ बयां कर देता है। वो कुछ बोला नहीं करता पर बोलने की ताकत जरूर रखता है ।


आज जिस मुक़ाम पर हूँ बहुत कुछ सीखने को बाक़ी है,क्योंकि आज कुछ भी नहीं हूँ। फ़िर भी उम्मीदों का एक कारवाँ है जो मुझे अपने साथ लिए फिरता है। इस कशमकश जहाँ में उम्र का हरेक पड़ाव कुछ ना कुछ रोज बतलाने की चाहत रखता है। मगर मेरे शब्दों से शिकायत भी तो उन्हीं चंद पंक्तियों को है जिनसे मेरी कविता है। ये इश्क का फ़ितूर है कि ज़माने का दस्तूर है,कि दस्तक तो हर किसी किरदार के चौखट पर दी ही जाती है। मगर यही खूबसूरती है ,जो मलाल होकर भी किस्से को ख़त्म करने की क्षमता रखते हैं। 


अपने सफ़र में जितने किस्सों को बटोरा है, उनमें ये एक नायाब लम्हा था। बेतरतीब तरीके से ली गयी ये तस्वीर मुझे मेरे बीते वर्ष और आने वाले वर्ष के बीच दिखाने की कोशिश कर रहा था जिसे अगर कैद ना किया गया होता तो शायद आज मैं यह लेख नहीं लिख रहा होता।य़ह तस्वीर ब्लैक एंड व्हाइट सेड में ली गयी थी। जिसमें किसी घर का एक बरामदा है जिसके एक कोने से अटक कर एक व्यक्ति अखबार पढ़ रहा है। मैं जब इसके सामने से गुजरा तो कई तस्वीरों की भांति इस पर भी मेरे मन में य़ह सवाल आया कि आख़िर इसके क्या पहलु हैं जिसे , इस आम सी घटना को किसी ने अपने कैमरे की लेंस में कैद करने की सोची और यही आम सी दिखने वाली तस्वीर उसकी उपलब्धियों का परिणाम बन गया। इन सवालों का आना तो लाज़मी था मगर जो जबाब मुझे मिला,उससे मैं सकते मे रह गया। आज इस रंगीन दुनियाँ में भी कुछ चीजें बहुत अहमियत रखती है जिसे हम आधुनिकीकरण के ओट में छिपा दिया करते हैं।


ख़ैर ऐसा पहली बार नहीं था मगर ये आख़री नहीं हो ऐसी उम्मीद तो किया ही जा सकता है। जिसका एक मात्र कारण यह है कि इनसे जुड़ कर कुछ ना कुछ सीखने को जरूर मिलता जो मेरे किरदार को प्रभावित करती है। और यह इसलिए नहीं है कि अभी मैंने पत्रकारिता को चुना है बल्कि अपने स्कूल के दिनों से ही मेरी रूचि इस तरह की किस्सों में रहीं हैं। और यही वज़ह है कि ऐसी चीजे मेरी जिंदगी से इत्तेफाक रखती है। इस छायाचित्र को किसी ने अपने फोन में कैद कर लिया, जिसे देखने के बाद य़ह सवाल की उस तस्वीर को कैद क्यों की गयी कोई मायने नहीं रखता। क्योंकि वो लम्हें वापस नहीं आते जो गूजर जाते हैं।


शायद ,जिंदगी भी कुछ यूँ ही तो होती है। जिन पलों के लिए हम अपने लम्हों का इंतजार करते हैं महज कुछ पलों में खत्म हो जाती और फ़िर इंतजार रह जाता...

😐😐😐


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संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

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