Thursday, 8 December 2022

चुनावी नतीजों के बाद किसकी सरकार बनाती है राजनैतिक पार्टियां?

 


आज देश के चार राज्यों में हुई चुनाव के नतीजों के साथ लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण इकाई समाप्त हुआ। जिनमें गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (156+*), और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस (39+*), छत्तीसगढ़ विधानसभा उप चुनाव में कॉंग्रेस, उत्तरप्रदेश लोकसभा उप चुनाव में समाजवादी पार्टी, उड़ीसा विधानसभा में बीजेडी ने और बिहार में विधानसभा उप चुनाव में बीजेपी ने एक विजय हासिल की। 

चुनाव के पहले से लेकर आख़री दिन तक कुछ चीजें बहुत चर्चा में रही। जिसमें सरकारी कार्यों को लेकर काफ़ी चर्चे भी हुए। चुनाव में भाग लेने वाली कुछ पार्टियाँ अपने पिछली कार्यों की प्रशंसा कर रहीं थीं तो कुछ करने वाले कार्यों के लिए वादे कर रही थी। जनता पिछली सरकार से सवाल पूछ रही थी और आने वाली सरकार के लिए सोच विचार कर रही थी। राजनेता एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर रहे थे। इस दौरान देश की मीडिया अपने कार्यों में उलझी थी, और जनता के सवालों को और सरकार के वादों की समीक्षा में व्यस्त थी । लेकिन अंत में जनता ने फैसला सुना दिया। जब ये चुनाव ख़त्म हो गए हैं तो एक बार फ़िर से सरकार किसकी बन रहीं है? कौन है जो सत्ता में वापसी कर रही है ? किसी पार्टी को कितनी सीट मिली है? कौन जीता है? कौन हारा है? आदि सवालों के नतीजों की तलाश जारी है। यह तलाश अगले कुछ दिनों तक चलेगी। और फ़िर उसके बाद यह चर्चे होंगे कि वो क्यों हार गये? वो सत्ता में वापस क्यों नहीं आ पाई? इसके अलावा और भी कई सवालों के जवाब ढूंढे जाएंगे। और इस तरह फ़िर एक नयी चुनाव की तारीख़ आ जाएगी जिसकी तैयारी में फिर सब लोग जुट जाएंगे। मगर चीज़ें वही रह जाएंगे।



 इन सब के बीच सवाल य़ह है कि ऐसी तत्परता सिर्फ़ चुनाव के लिए क्यों? लोकतंत्र के अलग अलग आयामों में सिर्फ चुनाव को प्रधानता क्यों? अन्य पहलुओं को लेकर तमाम बातों को क्यों नकारा जा जाता है। बहुत कम देखने को मिलता है कि" इन कारणों के चलते चुनाव को रद्द किया जाता है" , जबकी एक छोटी सी अफ़वाहों या अफ़सरों की गलती का खामियाजा लाखों निर्दोष छात्रों को उठाना पड़ता है जिनकी परीक्षा रद्द हो जाती है। किसी भी प्रस्थिति में चुनाव परीणाम में कोई देरी नहीं होती लेकिन विभिन्न परीक्षा की ना सिर्फ़ गोपनीयता भंग हो जाती है बल्कि उसके परीणाम को लेकर भी कई सारी दुविधा रहती है। परीणाम में देरी हो जाना तो आम समस्या है ही। फ़िर रोज़गार, आदि के हक़ीक़त से तो हर कोई वाकिफ़ है । इसके पीछे क्या वज़ह हो सकता है। 

आप अलग-अलग पार्टी की रणनीति को समझिए। एक चुनाव के दौरान अलग अलग पार्टियाँ चुनाव लड़ती है। लेकिन नाम सिर्फ़ एक या अधिक से अधिक तीन पार्टियों की होती है। जीत हार भी उसी एक पार्टी की मायने रखती है। लेकिन क्या यह जमीनी हक़ीक़त हो सकती है? नहीं। क्योंकि एक चुनाव के दौरान लोगों की धारणा अलग अलग होती है। पार्टियाँ उन धारणाएँ को समेट कर अपने पक्ष में करने की प्रयास करती है जो जीत और हार निश्चित करती है। फिर सवाल आता है कि फ़िर जिक्र किसी एक पार्टी की वोटों की क्यों की जाती है? और वो पार्टी कौन होगी इसका निर्णय कौन करेगा? आज किसी भी प्रकार के प्रतिस्पर्धा में सबसे ज्यादा चुनौती किसकी होती है और यह किसकी होनी चाहिए? जब आप यह देखेंगे कि कौन जीता और कौन हारा तो आप अपने तरीके को थोड़ा सा परिवर्तित कर यह पार्टी के नेतृत्व के अलावे व्यक्तित्व के आधार पर देखने की कोशिश करिये। आपको आपके सवालों के जवाब आसानी से मिल जाएगी। 



आज जब सभी फैसले आ चुके है फ़िर जीती हुयी पार्टी जो सरकारी तंत्र में अपनी ज़िम्मेदारी को सम्भालने वाली है उसकी क्या उतरदायित्व है? ऐसे सवालों की आशंका इसलिए है क्योंकि पिछली कई सरकारें ने अपने वादों की पूर्ति करने के लिए कोई भी ऐसा प्रयास करना सही नहीं समझा जिसके कारण जनता का भला हो सके। हालांकि अपवाद की गुंजाइश भी है इसमें किंतु सवाल य़ह है कि ये अपवाद भी सीमित होते हैं। अब जब सरकार बदली है तो जनता की अपेक्षा अधिक है जिसकी पूर्ति करना नवगठित सरकार की है। हालाँकि इस बात का भी उजागर वक्त की हाथों में है कि ये अपवाद किस प्रकार के होने वाले हैं। 

जितने वाले सभी जनप्रतिनिधियों को हार्दिक बधाई।



Sunday, 4 December 2022

सही और गलत के बीच विभाजन की दीवार!!!

 


भाषाई विविधता, क्षेत्रीय भिन्नता, आदि के कारण किसी प्रदेश का विभाजन कितना सही और गलत हो सकता है। भारत पूर्व काल से ही इसका साक्षी रहा है। हालांकि इसकी अपनी एक उपलब्धता भी है मगर इसके कारण जो व्यक्तिगत, समाजिक, और राजनैतिक धारणाएँ उत्पन्न होती उसका निवारण मुश्किल है। क्योंकि किसी क्षेत्र का विस्तार,उसका फैलाव, सिर्फ़ इन मानवीय संबंधों के आधार पर नहीं होता है। इसके फैलाव के मुख्य कारणों में प्रकृति का भी योगदान है। खैर ये अलग विषय है। अभी बात करते हैं,किसी प्रदेश के समाजिक, राजनैतिक और अन्य पहलुओं को लेकर जिसके बदौलत इस बात की चर्चा होती है कि कौन व्यक्ति किस समाज, संप्रदाय, जाति, प्रदेश, आदि का माना जाएगा। और वर्तमान में इसकी पहचान की एक मात्र इकाई है उसका जन्म। इसका एक पहलु यह भी है कि एक समय के बाद पहचान परिवेश का ना होकर व्यक्ति की अपनी हो जाती है। फिर वो धीरे-धीरे अपने अनुसार अपने परिवेश को व्यवस्थित करने पर जोड़ देता है। जिसमें उसकी ईमानदारी यह निर्धारित करती है कि यह बदलाव होगा कि नहीं। इसमें समय की मांग, समाजिक एकजुटता भी मुख्य कारक होते है। अगर देखे तो इसमें कई आयाम होते हैं। और यह सिर्फ समय के द्वारा निर्धारित किया जाता है। कोई विशेष व्यक्ति , संस्था या समूह सिर्फ़ इसका एक हिस्सा हो सकता है ना कि वो कारक का आधार। इसमें अपवाद की गुंजाइश है लेकिन शर्त है कि समय,और समाज की स्थिरता उसके साथ रहनी चाहिए। और इसके उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। लेकिन किसी भी प्रस्थिति में इस चीज को नकारा नहीं जा सकता कि समय की अपनी एक जरुरत होती है। और यही वज़ह है कि प्रकृति ने मानव को पृथ्वी का एक पूरा हिस्सा दिया था, लेकिन आज य़ह कई हिस्सों में विभाजित हो गया है। जिसके अपने सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव है। लेकिन सवाल यहाँ विभाजनों का नहीं है,बल्कि सवाल य़ह है यह कब तक लोगों की जरूर बनेगी और कब तक मानव अपने विकास के लिए इस सीढ़ी का प्रयोग करेगा? किसी एक पहलु को लेकर तमाम खबरों को खारिज किया जाना और उससे जुड़ी अन्य पहलुओं को स्पष्ट किया जाना कब तक मानव जाति के लिए एक सही कदम उठाने की कोशिश होगी?


 उदाहरण के लिए आज हम बिहार के एक प्रांत का ज़िक्र करते हैं। जो मिथिलांचल के नाम से जाना जाता है। इस प्रांत के बारे में कहा जाता है कि प्राचीन काल से ही इसका अपना एक पहचान है। जिसका साक्ष्य रामायण में भी मिलता है। इसके बाद आधुनिक काल में तो इसकी विरासत कहानी बहुत लम्बी है। जिसका ज़िक्र पौराणिक काल से लेकर आधुनिक काल तक अलग अलग रूप में मिलता है। भारत की पहचान के कुछ समय बाद जब इस प्रदेश की पहचान की गई थी तो इसका एक हिस्सा भारत में और दूसरा हिस्सा भारत के पड़ोसी देश नेपाल में बताया गया।


इसके ऐतिहासिक किस्सों का ज़िक्र फ़िलहाल नहीं,बात वर्तमान और उससे कुछ पहले की।जब भारत अपनी आज़ादी के लिए प्रयासरत था तब से लेकर आज़ादी के 75 साल तक इस प्रांत ने भारत के पताका को लहराने का कार्य किया। लेकिन आज यह अपना अस्तित्व तलाश रहा है। खासकर कर आज़ादी के बाद। जो प्रांत प्रदेश का रोज़गार, उद्योग, कृषि, व्यापार, शिक्षा , चिकित्सा ,संस्कृति ,कला, साहित्य, आदि के साथ-साथ समाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं अन्य विकास की केंद्र थी आज उसकी पहचान खत्म हो गई है। कुल 38 जिलों में 22 जिले इस प्रांत में आते है। लगभग 12 करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश की लगभग 8 करोड़ आवादी इस प्रांत में रहती है। राज्य में सरकार निर्माण हो या केंद्र में इस प्रदेश का काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। सबसे ज्यादा पलायन की चुनौती इसी प्रांत की है। आदि और अन्य कई समस्या है जिसके समाधान के लिए यह प्रांत आज़ादी के 75 सालों से इंतजार कर रहा है। लेकिन स्थिति जस की तस बनी हुयी है। और बिहार के इस प्रांत को राज्य और केन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी का शिकार बनाया जा रहा है। जिसे बचने के लिए प्रांत अब विभाजन की माँग कर रही है। यहाँ के लोग ऐसा माँग कर रहे हैं कि जैसे झारखंड का विभाजन हुआ उसी प्रकार इस प्रांत का भी विभाजन किया जाय। ताकि य़ह प्रांत नयी तरीके से अपने विकास के आयामों को गढ़े और अपनी समस्याओं का समाधान कर अपनी पहचान कायम कर सके। 


लेकिन विभाजन के बाद की स्थिति के बारे में उसे पहले अपने से सीख लेनी चाहिए। क्योंकि अलग अलग काल मे विभाजन की मार सहने वाला यह प्रदेश अब किसी भी प्रकार के विभाजन की स्थिति में नहीं है। इसकी अपनी विरासतों में ही सेंध लगती रही है। क्योंकि इसकी वर्तमान स्थिति के लिए विभाजन एक प्रमुख कारण है। नतीजा यह हुआ है कि बिहार की हरेक चीज बदल चुकी है। जो किस्से इसके बारे मे मशहूर थी आज सिर्फ़ अफवाह बनकर रह गई है।हालांकि यह अपनी पहचान बदलने के लिए प्रयासरत है। मगर ये प्रयास अभी गिनती से दूर है। बिहार की इस हालात के लिए ज़िम्मेदार है यहाँ की राजनैतिक पार्टियां। जो कहने को तो खुद को बिहार के आम लोगों का मसीहा कहती हैं। मगर हक़ीक़त कुछ और है। आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद बिहार की तसवीर में काफ़ी अन्तर आ गया है। जिस बिहार की शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि का उदाहरण दिया जाता था आज उसकी उपलब्धि पिछली लाइन में खड़ी  होती है। जो बिहार कभी भारत के राजनीतिकरण का केंद्र था आज उसके नेताओं की गिनती भी नहीं होती है। ईमानदारी पर सवाल खड़े किए जाते हैं। तो यह कहना कि राजनीतिकरण, भाषाई विविधता, सामजिक भिन्नता, आदि के कारण हुयी किसी प्रांत या प्रदेश का विभाजन सही नहीं है। इससे विकास के कार्य ठप होते हैं। अतः इसलिए इसके लिए सही यही है की एक नागरिक के रूप समाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समृद्धि के लिए ख़ुद प्रयास किया जाना चाहिए। इसमे अपनी भूमिका सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि एक सकरात्मक बदलाव की संभावना हो।

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संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

केंद्र सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में, इस बार 5 लोगों को भारतरत्न देने की घोषणा की हैं। केंद्र के इस घोषणा के बाद जहां विपक्...