आज देश के चार राज्यों में हुई चुनाव के नतीजों के साथ लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण इकाई समाप्त हुआ। जिनमें गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (156+*), और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस (39+*), छत्तीसगढ़ विधानसभा उप चुनाव में कॉंग्रेस, उत्तरप्रदेश लोकसभा उप चुनाव में समाजवादी पार्टी, उड़ीसा विधानसभा में बीजेडी ने और बिहार में विधानसभा उप चुनाव में बीजेपी ने एक विजय हासिल की।
चुनाव के पहले से लेकर आख़री दिन तक कुछ चीजें बहुत चर्चा में रही। जिसमें सरकारी कार्यों को लेकर काफ़ी चर्चे भी हुए। चुनाव में भाग लेने वाली कुछ पार्टियाँ अपने पिछली कार्यों की प्रशंसा कर रहीं थीं तो कुछ करने वाले कार्यों के लिए वादे कर रही थी। जनता पिछली सरकार से सवाल पूछ रही थी और आने वाली सरकार के लिए सोच विचार कर रही थी। राजनेता एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर रहे थे। इस दौरान देश की मीडिया अपने कार्यों में उलझी थी, और जनता के सवालों को और सरकार के वादों की समीक्षा में व्यस्त थी । लेकिन अंत में जनता ने फैसला सुना दिया। जब ये चुनाव ख़त्म हो गए हैं तो एक बार फ़िर से सरकार किसकी बन रहीं है? कौन है जो सत्ता में वापसी कर रही है ? किसी पार्टी को कितनी सीट मिली है? कौन जीता है? कौन हारा है? आदि सवालों के नतीजों की तलाश जारी है। यह तलाश अगले कुछ दिनों तक चलेगी। और फ़िर उसके बाद यह चर्चे होंगे कि वो क्यों हार गये? वो सत्ता में वापस क्यों नहीं आ पाई? इसके अलावा और भी कई सवालों के जवाब ढूंढे जाएंगे। और इस तरह फ़िर एक नयी चुनाव की तारीख़ आ जाएगी जिसकी तैयारी में फिर सब लोग जुट जाएंगे। मगर चीज़ें वही रह जाएंगे।
इन सब के बीच सवाल य़ह है कि ऐसी तत्परता सिर्फ़ चुनाव के लिए क्यों? लोकतंत्र के अलग अलग आयामों में सिर्फ चुनाव को प्रधानता क्यों? अन्य पहलुओं को लेकर तमाम बातों को क्यों नकारा जा जाता है। बहुत कम देखने को मिलता है कि" इन कारणों के चलते चुनाव को रद्द किया जाता है" , जबकी एक छोटी सी अफ़वाहों या अफ़सरों की गलती का खामियाजा लाखों निर्दोष छात्रों को उठाना पड़ता है जिनकी परीक्षा रद्द हो जाती है। किसी भी प्रस्थिति में चुनाव परीणाम में कोई देरी नहीं होती लेकिन विभिन्न परीक्षा की ना सिर्फ़ गोपनीयता भंग हो जाती है बल्कि उसके परीणाम को लेकर भी कई सारी दुविधा रहती है। परीणाम में देरी हो जाना तो आम समस्या है ही। फ़िर रोज़गार, आदि के हक़ीक़त से तो हर कोई वाकिफ़ है । इसके पीछे क्या वज़ह हो सकता है।
आप अलग-अलग पार्टी की रणनीति को समझिए। एक चुनाव के दौरान अलग अलग पार्टियाँ चुनाव लड़ती है। लेकिन नाम सिर्फ़ एक या अधिक से अधिक तीन पार्टियों की होती है। जीत हार भी उसी एक पार्टी की मायने रखती है। लेकिन क्या यह जमीनी हक़ीक़त हो सकती है? नहीं। क्योंकि एक चुनाव के दौरान लोगों की धारणा अलग अलग होती है। पार्टियाँ उन धारणाएँ को समेट कर अपने पक्ष में करने की प्रयास करती है जो जीत और हार निश्चित करती है। फिर सवाल आता है कि फ़िर जिक्र किसी एक पार्टी की वोटों की क्यों की जाती है? और वो पार्टी कौन होगी इसका निर्णय कौन करेगा? आज किसी भी प्रकार के प्रतिस्पर्धा में सबसे ज्यादा चुनौती किसकी होती है और यह किसकी होनी चाहिए? जब आप यह देखेंगे कि कौन जीता और कौन हारा तो आप अपने तरीके को थोड़ा सा परिवर्तित कर यह पार्टी के नेतृत्व के अलावे व्यक्तित्व के आधार पर देखने की कोशिश करिये। आपको आपके सवालों के जवाब आसानी से मिल जाएगी।
आज जब सभी फैसले आ चुके है फ़िर जीती हुयी पार्टी जो सरकारी तंत्र में अपनी ज़िम्मेदारी को सम्भालने वाली है उसकी क्या उतरदायित्व है? ऐसे सवालों की आशंका इसलिए है क्योंकि पिछली कई सरकारें ने अपने वादों की पूर्ति करने के लिए कोई भी ऐसा प्रयास करना सही नहीं समझा जिसके कारण जनता का भला हो सके। हालांकि अपवाद की गुंजाइश भी है इसमें किंतु सवाल य़ह है कि ये अपवाद भी सीमित होते हैं। अब जब सरकार बदली है तो जनता की अपेक्षा अधिक है जिसकी पूर्ति करना नवगठित सरकार की है। हालाँकि इस बात का भी उजागर वक्त की हाथों में है कि ये अपवाद किस प्रकार के होने वाले हैं।
जितने वाले सभी जनप्रतिनिधियों को हार्दिक बधाई।