Wednesday, 22 March 2023

पलायन और बिहार



समानार्थी शब्द ऐसे शब्द होते हैं, जो एक समान अर्थ रखते हैं। इसके अलावा  कुछ ऐसे शब्द भी है जो  समानार्थक नही है लेकिन उसके भावार्थ समान होते है। मगर बोल चाल के दौरान हम कुछ ऐसे शब्द का ईस्तेमाल करते है, जिनके अर्थ ,भाव आदि कुछ समान नही होते लेकिन कहने का तात्पर्य, उसका आशय , कहने के मायने सब समान होते हैं। हालांकि ऐसे शब्द व्याकरणिक दृष्टिकोण से सही नही है, लेकिन परिस्थितिवश उन शब्दों के प्रयोग हम एक अर्थ के लिए कर रहे होते हैं। बिहार और पलायन के मायने भी कुछ इसी तरह है।


 कैसी बिडम्बना है,आज आजादी के 75 सालों बाद  देश के अन्य प्रान्त विकास के नए आयामों को छु रहे है, यह प्रदेश अपनी विरासत को संभालने में भी असफ़ल रहा। राजनैतिक, सांस्कृतिक,  लोकतांत्रिक, समाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक , और कानूनी रूप से मजबूत इस प्रदेश के लिए आज यही शब्द व्यंग्यात्मक पर्याय बन गया है। रोटी, कपड़ा , अवास जैसी मूलभूत ज़रूरतों के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, आदि कई सारी समस्याएं हैं ,जिसके निवारण के लिए यँहा के लोग अपने ही देश में प्रवासी शब्द के पर्याय बने हुए हैं। 



वर्तमान के परिदृश्य की तुलना अगर अतीत से किया जाय तो प्राचीन बिहार ही है जिसने खुली अर्थव्यवस्था की नींव रखी थी।  269 - 232 के प्राचीन भारत में जब अशोक का शासनकाल था। और अशोक मगध के गद्दी का शासक था, उसने अपने राज्य में खुली अर्थव्यवस्था पद्धति का विकास किया था। जिस अर्थव्यवस्था के कारण लोग रोज़गार, उद्योग, व्यापार, वाणिज्य, शिक्षा, आदि के विकास के लिए  स्थानांतरित होते हैं। लेकिन यह स्थानांतरण आज बिहार जैसे राज्य के लिए अभिशाप बन गया है क्योंकि इस अर्थव्यवस्था के कारण ही आज इसकी खुद की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी है। हालांकि यह हक़ीक़त पूर्णतः सही  भी नहीं है लेकिन थोड़ी हक़ीक़त ये भी है। क्योंकि अगर जिन विषयों के कारण लोग पलायन कर रहे है। उसका समाधान अगर यही हो जाए तो पलायन की जरूरत क्यों ही होगी? और अगर एक जगह पर दूसरे जगह के लोगों को उनके समस्या का निराकरण नहीं मिलेगा वो वहाँ क्यों ही जाएगा ? 


बिहार से पलायन की सबसे बड़ी समस्या क्या है?

 

1951 में पूरे भारत में कुल 6982 रजिस्टर्ड फैक्ट्रियां थी जिनमे 445 सिर्फ़ बिहार में थी। मतलब कि पूरे देश की कुल 6.51% फैक्ट्री सिर्फ़ बिहार में। लेकिन आज इसकी संख्या कितनी है इसकी  पूरी जानकारी मे भी संशय बना हुआ है।  आज प्रदेश के लाखों लोग पलायन के दर्द को इसलिए  झेल रहे हैं क्योंकि उन्होंने एक मजबूर सरकार का चयन किया है। मेरा ऐसा कहना इसलिए भी गलत नहीं है क्योंकि पिछले 30 सालों से मुख्य रूप से जिन दो पार्टियों ने राज्य में शासन किया। राज्य की हालत की ज़िम्मेदारी उन्हीं दो पार्टियों की सबसे अधिक है। पिछले 30 सालों में जब अन्य राज्यों में विकास के नए पँख लगाये जा रहे थे। ये पार्टियां अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए राज्य को अलग दिशा में ले जा रही थी। जो आज भी जारी है। जिन समस्याओं का समाधान शायद हो जाना चाहिए था वही आज सबसे समस्या बन गयी है, जिसका समाधान करना सरकार तो नहीं चाहती... क्योंकि अगर इसका निराकरण हो गया तो इनके चुनावी जुमले में  मुद्दों की कमी हो जायेगी। और ऐसा हो ये पार्टियाँ कदापि नहीं चाहेगी। 


पलायन की मजबूरियां ...



रोजगार की कमी है। प्रदेश का एक बहुत बड़ा हिस्सा बाढ़ से प्रभावित है।  रोज़गार की स्थिरता नहीं है। पारिश्रमिक दर अन्य राज्यों की तुलना में  बहुत कम है। उद्योग की कमी है, और जो उद्योग है वो भी धीरे-धीरे बंद हो रहे हैं। व्यापार और व्यवसाय के लिए कोई विकल्प नहीं है। या फ़िर कहे की अवसर नहीं है। शिक्षा व्यवस्था तो प्रतिदिन सवालों के घेरे में आती ही रहती है । स्वास्थ्य सुविधा के  बदतर हालात के बारे में क्या ही कहने? 

इस हालात में प्रदेश के नागरिकों के पास सिवाय पलायन के कोई विकल्प नहीं है। वो ना चाहते हुए भी  पलायन की मजबूरियों का शिकार होते हैं। क्योंकि मूलभूत सुविधाएं तो हर किसी की पहली जरूरत है। और यही इन्हें अपने प्रदेश में नहीं मिलती ,या फ़िर कहे की इनकी जरूरतें पूरी नहीं हो पाती है।  अन्य राज्यों की तुलना में इन्हें कम पारिश्रमिक मिलता है। भारत में सबसे कम प्रतिव्यक्ति आय और सबसे ज्यादा असमानता वाला राज्य बिहार ही है। इसके अलावा राज्य से पलायन की मजबूरी राज्य में छोटे छोटे उद्योग का ना होना भी है। क्योंकि ऐसे कई उद्योग है, जो आज़ादी के समय और उसके बाद भी कुछ दिन तक बड़े पैमाने पर पलायन की समस्या का निराकरण कर रहे थे। लेकिन बाद में उन्हीं का अस्तित्व ख़त्म हो गया। उदाहरण के लिए आज़ादी से पहले राज्य में 33 चीनी मिलें थी आज आधा दर्जन के आसपास ही है, जिनकी हालात भी नाज़ुक है। उद्योगों की कमी का ठीकरा राज्य सरकार , राज्य की भौगोलिक स्थिति , जिसमें इसका लैंड लॉक्ड  होने की बात पर फोड़ रही है लेकिन असली कारण तो कुछ और ही है। क्योंकि अगर लैंड लॉक्ड होना समस्या होता तो  देश के अन्य राज्य जैसे हरियाणा, आदि उसकी हालत  तो बिहार से बेहतर है। बिहार की औद्योगिक विकास की नीतियों में खामियों के वज़ह से लोग यहाँ निवेश करने से कतराते है। इसमें जिस  सिंगल विंडो क्लियरेंस की बात कही गयी है, मेरे समझ से उसमे सुधार की जरूरत है। 

 

बदतर होती हालात....

देश की आज़ादी के पहले दशक (1951-1961) में पलायन की जो संख्या महज 4% थी। उसमें कमी आने के बजाय बढ़ोतरी होती गयी। आज देश के 13% (2011 के जनगणना के अनुसार,  वर्तमान में य़ह आँकड़ा  लगभग 15 % है अलग अलग संस्थानों द्वारा जारी आंकड़ों का औसत भारत सरकार द्वारा अधिकारिक आंकड़े नहीं जारी किए गए हैं ) प्रवासी लोग इसी प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं। जो भारत में दूसरे स्थान पर है।   हालत यह है कि वर्तमान में प्रदेश के 55%  रोज़गार, 3-5% शिक्षा और 3 % लोगों को व्यापार के लिए राज्य से पलायन करने की मजबूरियां है। लेकिन सरकार राज्य में उद्योग, रोज़गार, शिक्षा आदि में विकास की बड़ी बड़ी डींगें हांकने में कभी पीछे नहीं रहती है।




एनसीएसपी( नेशनल करियर सर्विस पोर्टल) के अनुसार  बिहार में बेरोजगारों की संख्या में पिछले एक साल में 3 गुना बढ़ी है। 2005 मे राज्य की ग़रीबी दर 54.5 % थी जो आज मामूली अंतर के साथ  51. 9 %  है। लेकिन सरकार इस उपलब्धि को अलग तरीके से देख रही है। दरअसल वर्तमान वर्ष में भारत की बेरोजगारी दर 7.5 % और बिहार की 12.3% । इस आंकड़े को राज्य सरकार महामारी और गिनती में अधिकारिक आंकड़े की बात कर अनदेखा कर रही क्योंकि महामारी के कारण 2021 में केंद्र सरकार जनगणना नहीं करा सकी। हालांकि अन्य कोई भी ऐसे कार्य जिससे सरकार की उपलब्धियों का बोध होता है, उसमे कोई रुकावट नहीं देखने को मिला। 


मुँह मोड़ती सरकार...


राजनीतिक फायदे के लिए पक्ष और विपक्ष अपने विचारधाराओं को ताक पर रख देते हैं। लेकिन बात जब आम लोगों की परेशानियों की हो तो किसी  के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। ताज़ा उदाहरण तो जातिगत जनगणना ही है। इस कार्य के लिए राजनैतिक दलों ने प्रदेश सरकार ने आखिरकार बिहार में जातिगत सर्वेक्षण कराने के फैसल पर मुहर लगा ही दी। लेकिन देश के अन्य राज्यों में कितने प्रदेशवासी हैं और उसकी हालात क्या है। इस विषय पर कोई चर्चा नहीं। प्रदेश के मज़दूरों के साथ जब चीज़ें बिगड़ रही होती हैं, इनका जबाब एक ही होता है " मामले को संज्ञान में लिया गया है, और जाँच की जा रही है।"लेकिन हक़ीक़त ये है कि ये राजनैतिक भाइचारे के लिए एक दूसरे  से गले मिल रहे होते हैं।  विकास के कार्यों में हो रही कोताही इन्हें नहीं दिखता, परीक्षा के प्रश्नपत्र के लीक होने की वजह इन्हें  मालूम नहीं होती, अभ्यर्थियों पर लाठीचार्ज की जानकारी इन्हें नहीं होती, विधानसभा में बैठकर जब धार्मिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक  सद्भावना को लेकर अनाप सनाप बोलने वालों की बातें इन्हें सुनाई नहीं देती। लेकिन राजनैतिक फायदे के लिए ये  किसी भी हद तक जाने में इन्हें किसी प्रकार की कोई कोताही बरतने की जरूर नहीं पड़ती है। क्योंकि लोकतंत्र में जनता तो सिर्फ़ वोट देने के लिए नहीं  है। जिस चीज को समझना होगा। राजनीतिक दलों को अपने विचारधारों में संप्रदायवाद , जातिवाद , आदि को छोड़कर विकास को प्राथमिकता देने की जरूरत है। ताकी हम तरक्की के आयामों को छूने के कदम से कदम बढ़ाकर चल सके। अपने प्रदेश को उस ऊंचाई तक ले जाएं जहां हमसे ऊपर कोई नहीं हो। 

राजनैतिक , समाजिक  आर्थिक रूप से कमजोर होना सिर्फ वक्त का खेल है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो जो राष्ट या भौगोलिक क्षेत्र आज मजबूत बने है कुछ समय पहले अपनी पहचान के लिए भटक रहे थे। सोने की चिड़ियाँ माने जाने वाला देश आज फिर से विश्व को अपने कदमों में झुका रहा है, और दुनियाँ झुकने को तैयार है। तो इसका मतलब है की हमारे देश बदल रहा रहा है। हम मजबूत हो रहे हैं। लेकिन अभी हम उस मुकाम पर नहीं पहुँच पाए है जहां हमे पहुचना है। हमे विकास के नए आयामों को छूने के लिए प्रयास करते रहना होगा। और हमे कदम मिलाकर चलना होगा।  


Saturday, 18 March 2023

वैश्विक मंच पर शक्तिशाली होती हिन्दी।

                                                                                               




हिन्दी साहित्य के बहुत कम लेखक हुए जिन्हे विश्वपटल पर वो मुकाम हासिल हुई जो की अन्य भाषा साहित्य के लेखकों को मिली है । लेकिन पिछले दिनों एक के बाद एक अंतरराष्ट्रिय सम्मान से सम्मानित होने का अवसर हिन्दी के लेखकों को मिलना ,इस भाषा के लिए गौरव की बात है। मेरा ऐसा कहना, शायद इस भाषा की विरासत के लिए गुस्ताखी होगी, लेकिन आज आधुनिकरण के चलते जिस तरह इस भाषा की अपेक्षा हो रही है, उस हिसाब से यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। हालांकि इस बात को नकारा नहीं जा सकता की कोई भी सम्मान किसी भाषा की लोकप्रियता का आधार नहीं हो सकता और न ही है। आज भारत में हिन्दी बोलने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन बात इस भाषा की लोकप्रियता की नहीं बल्कि वैश्विक पहुँच की है। जिसमें यह भाषा कामयाब हो रही है। जिसका परिणाम है कि भाषा के लेखनी को वैश्विक पहचान मिल रही है। 


मार्च का यह महीना इस साहित्य के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गया। जब अमेरिका की साहित्यिक संस्था पीईएन द्वारा प्रेस विज्ञप्ति मे जब यह घोषणा की गई कि हिन्दी के लेखकों में सबसे विशिष्ट और प्रतिष्ठित अंतरराष्टीय साहित्य सम्मान इस बार भारत के झोली में जा  रहा है।भारत के लिए  सबसे बड़ी बात यह की यह पहली बार आ रहा है। इससे पहले रेत समाधि के गीतांजलि श्री को बुकर , और फिर यह पीईएन सम्मान ,हिन्दी साहित्य के एक बड़ी उपलब्धि है जो आने वाले साहित्यकारों के लिए मिसाल बनेगी। श्री शुक्ल की पहली कविता साल 1971 में छपी थी और आज 52 सालों के बाद उन्हे अंतरराष्टीय स्तर के इस साहित्यिक सम्मान से सम्मानित किया जाना, यह दर्शाता है कि सफलता की कोई एक उम्र नहीं होती है। बस आपको तटस्थ रहना होता है।


अपनी सफलता पर शुक्ल कहते हैं कि मेरा लोकल होना ही ,मेरे वैश्वीक होने का प्रमाण है। और उनकी यह बात उनकी लेखनी में झलकती है। जो उन्हे इस सम्मान के लायक समझता है। ऐसी ही बातें पीईएन के जजों द्वारा भी कही गई। और हो भी क्यों नहीं, बात जब किसी प्राथमिक होने की हो, उसके पहचान की हो , तो मेरे समझ से इस बात की संभावना बहुत बढ़ जाती है, कि वो अपने आप से कितना जुड़ा है। और इस सम्मान से पहले से जो भी व्यक्ति, या पाठक श्री विनोद शुक्ल से राबता रखते हैं, उन्हे मेरे इस कथन से सायद कोई विशेष आपत्ति नहीं होंगी। क्योंकि किसी एक दौर में श्री शुल्क को समेट देना, उनकी लेखनी के साथ ज़्यादती होगी।


 आज जब हम सम्मान के कारण श्री शुल्क को इतने करीब से जानने की कोशिश कर रहें है, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए उनकी पहचान सिर्फ सिर्फ इसी सम्मान से नहीं है उनके साथ उनकी  पिछले 52 साल की लेखनी है। जो उनकी पहचान और समृद्ध करती है। ऐसे कितने नामी गुमनामी व्यक्तित्व है, जिनकी पहचान आज तक नेपथ्य में ही छिपी है। कारण जो भी हो लेकिन मंच के एक कोने में सीट उनकी भी पक्की होनी चाहिए ताकी हमारी यह भाषा और वैश्विक पटल पर और समृद्ध दिखे।  

 

बात जब वैश्विक और लोकल होने की है तो हमे खुद से पूछना चाहिए कि हम किस श्रेणी में आतें है? यह विवाद इसलिए है क्योंकि अगर गिनती के कुछ लोगों को छोड़ दिया जाय तो हममें से सिर्फ गिनती के कुछ लोग ,गिनती के हिन्दी साहित्यकार को जानते है। जबकि हमरा संबंध ऐसे राष्ट से है जहाँ हिन्दी की विशालता है। इसके वावजूद इस भाषा में बोलने वाले , लिखने वाले, पढ़ने वाले , और समझने वालों की संख्या कुछ इतनी है कि किसी किताब मेले में , या किताब के दुकानों पर अक्सर उन्हे कल आने के लिए कहा जाता है। या फिर उनसे किताब के बदले कोई अन्य भाषा की किताब के लिए प्रेरित कर दिया जाता है। 


आपको याद होगा कि कैसे बुकर सम्मान ने रेत समाधि पुस्तक की लोकप्रियता बढ़ा दी। आज श्री शुल्क की भी लगभग वही दास्ताँ है। पीईएन की घोषणा के बाद जब श्री शुल्क से उनकी संघर्षों के किस्सों की बात पूछी गई, उनके शब्दों से यह हकीकत झांक रही थी। हद तो तब हुई जब एक पत्रकार ने उनसे उस कविता के बारे जानना चाहा जिसकी रचना उन्होंने की ही नहीं। ऐसे में दोष किसे दे ? क्योंकि ऐसा पहली बार तो नहीं था। इससे पहले रेत समाधि की भी यही मजबूरी थी, जिस किताब को सम्मान के वावजूद आलोचना झेलनी पड़ी। पाठकों की एक वर्ग ने उपन्यास के भाषा शैली पर प्रश्न उठाए। सवाल यह है कि हम अपनी विरासतों पर गर्व क्यों नहीं कर पा रहे। हमे  हमारी चीजों से कोई और क्यों वाकिफ करवा रहा? पिछले दिनों जब फिजी के नादी शहर में 12 वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हुआ तो, कही न कही इसका मकसद इस भाषा को वैश्विक पहचान दिलाना था। और एक के बाद एक अंतरराष्टीय सम्मान यह साबित करती है कि हम कामयाब हो रहे है, लेकिन कामयाबी अभी बहुत दूर है। 



 


संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

केंद्र सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में, इस बार 5 लोगों को भारतरत्न देने की घोषणा की हैं। केंद्र के इस घोषणा के बाद जहां विपक्...