भारतीय भाषाओं और
साहित्य का विश्व पर प्रभाव !!!
इन साहित्यकारों तत्कालिक परिस्तिथियों से लड़ते हुयें ना सिर्फ़ राष्ट्रवाद को उजागर किया ब्लकि भारतीय साहित्य के भविष्य का बचाव करने के लिए प्रयास किया है।क्योंकि इस दौर में जब भारत अपने आज़ादी के लिए लिये मसक्त कर रहा था। विश्व में वैश्वीकरण का प्रचार-प्रसार हो रहा था। या कहें की विश्व एकजुट हो रहा था। ऐसे में भाषाई एक जुटता अत्यंत आवश्यक हो गया था। क्योंकि विश्व में लगभग सभी जगहों पर अंग्रेज़ी सत्ता का वर्चस्व था,जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेज़ी भाषा का प्रचार-प्रसार तीव्र हो रहा था। जिसकी झलक भारत में देखा जा रहा था।
और यह भाषा इतना प्रचलित हो चुका था लोगों का मानना था कि सिर्फ़ अंग्रेज़ी ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बोली और समझी जा सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ वैश्वीकरण के इस दौर में जब लोगो का एक जगह से दूसरे जगहों पर आना जाना आसान हो गया है, अपनी भाषा के साथ साथ अन्य भाषा को समझना और सिखना और भी आसान हो गया है।
और एक जब एक राष्ट्र दूसरें के लिए बाजार बन गया है तो इसकी भी अनिवार्यता बढ़ गई की अपने प्रॉडक्ट्स,उसकी गुणवत्ता, अपनी बातें रखने के लिये लोगों को उनके स्थानीय भाषा में समझाने के लिए, पहले वो उसको खुद समझ ले। और चुकी भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजारों में से एक है,तो इसकी भाषा का विकास आसान हो गया है। आज जब विश्व में अलग-अलग विदेशी भाषाओं को सीखने-सिखाने का होर चल रहा है।
तो लोगों की पसंद भारतीय भाषाओं का होना भी इस भाषा की बड़ी उपलब्धियों में है। उदाहरण के लिए अन्य राष्ट्रों में शैक्षणिक संस्थानों में विषय वस्तु के रुप में जोड़ा जाना एक बड़ी उपलब्धियों में है। भारतीय उत्पाद का जब विश्व भर में भारतीय भाषा में प्रचार-प्रसार होता है और लोग उसे उसी नाम से खरीदते हैं तो यह भारतीय भाषा की सबसे बड़ी उपलब्धता है। ऐसे ही जब दूसरें देश के नागरिक यँहा भ्रमण में आते है तो खुद को भारतीय भाषा में परिचित करवाने में अत्यधिक आनंदित महसूस करते हैं।
जिसका मतलब है कि दूसरे लोग हमारी संस्कृति, भाषा को समझने की कोशिश में प्रयास कर रहे हैं। तो इसका मतलब यह है कि हम विकास के पथ पर अग्रसर है।आज इन्टरनेट के बढते प्रभाव के बावजूद भारतीय भाषाओं का प्रचलन भारतीय साहित्य के विकास के लिए सबसे मजबूत आधार बन रहा है। जो विश्व भर में इसके प्रचार-प्रसार के लिए उचित कदम उठाएँ जा रहे हैं। अक्सर देखने-सुनने को मिलता है कि लोग अपनी भाषा को भुल रहें है। लोगों की पसंद दुसरी भाषाएं बन रही है। जो की गलत नहीं है मगर कुछ नया सिखने की चाहत में पुरानी चीजों या अपनी चीजों को भुल जाना शुभ संकेत नहीं है। अन्य भाषाओं के सिखने का प्रयास में अपनी भाषाओं को नजरअंदाज करना भविष्य के लिए के खतरे की घंटी है।
क्योंकि आज जब वैश्वीकरण के कारण हर कोई एकजुट होकर विश्व विकास के लिए अपना हम योगदान दे रहा है, ऐसे में अगर हम अपनी अस्मिता , पहचान आदि की रक्षा करने में असमर्थ हो जाय तो यह विकास की सही परिभाषा नहीं होगी। हम देखते हैं कि हमारे साहित्यिक कृतियों में विदेशी शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में मिलता है, जिसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे पास शब्दों की कमियां है, बल्कि हमारा साहित्य में इतनी विशालता है कि विश्व की कोई भाषा, साहित्य क्यों ना हो उसका स्वरूप इसके सामने छोटा-सा दिखाई देता है।
आज अँग्रेजी साहित्य की लोकप्रियता विश्व भर में है। लेकिन जब हम इसके स्वरूप को समझने का प्रयास करते
हैं तो मालूम होगा कि यह अलग अलग रूप में है।
जैसे अमेरिकन इंग्लिश, ब्रिटिश इंग्लिश आदि। इसके बोलने का तरीका, लिखने का
तरीका सब कुछ अलग अलग है। लेकिन भारतीय साहित्य
के साथ ऐसा नहीं है। हालांकि इसमें अपवाद हैं लेकिन इसका खास असर नहीं पड़ता। क्योंकि ऐसे अपवाद वहीं देखने को मिलता है जहाँ
उससे संबंधित लोगों का एक जगह से दूसरे स्थान पर चले जाते या वहाँ के स्थानीय भाषाओं,
संस्कृति, सभ्यता के अनुरूप खुद को ढाल नहीं पाते। अगर देखा जाए तो यह भाषाओं के रूप
में समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन है। जिसकी ज़रूरत भी होती है क्योंकि यह
भाषाई विकास के लिए महत्वपूर्ण है।
भारतीय साहित्य में भाषाई विविधता !!!
अब हम बात करते है भारतीय साहित्य में भाषाओं के विविधताओं का जो इस साहित्य को औरों से अलग बनाती है और आलोचना की वजह भी बनाती है। भारत विविधताओं का ऐसा संगम है जहाँ सामजिक, वैचारिक, राजनैतिक, के साथ-साथ भाषाई विभेद का दर्शन भी मिलता है। इसके अलग अलग प्रान्तों में अनेकों भिन्न भिन्न प्रकार के भाषा बोली और समझी जाती है।जो भारत के भौगोलिक सीमाओं का भी निर्धारण करती है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की कुल संख्या 222 है। इस आकड़ों के हिसाब से अनुमानित किया जा सकता है कि भारत भाषाओं के क्षेत्र में कितना समृद्ध और शक्तिशाली है।
इतने लंबे क्षेत्रफल और भाषाओं में विविधताओं के कारण किसी एक व्यक्ति या संस्था द्वारा हरेक भाषा का अवलोकन किया जाना मशक्कत भरा है। और भाषाओं का सही जानकारी मिलना भी थोड़ा कठिन है। इसलिए भारत में बोली जाने वाली भाषाओं को वर्गीकरण किया गया है जिसमें अलग अलग भाषाओं को वहाँ के रहन सहन, खान पान और सामाजिक व्यवहार के अनुसार वर्गीकृत किया गया है।
इसका वर्गीकरण हिन्द आर्य, द्रविड़, ऑस्ट्रो- एशियाटिक, चीनी तिब्बती, अंडमानी आदि विश्व भाषा समूह में वर्गीकृत किया गया है। इसके वर्गीकरण किये जाने आधार इसके बोलने लिखने और पढ़ने का सलीका से तय किया गया है। क्योंकि बहुत से भाषाओं का पढ़ने ,बोलने ,लिखने तरीका मिलता जुलता है। जिसे आसान शब्द में लिपी कहते हैं। भारत के लगभग दो तिहाई से अधिक आवादी में हिन्द आर्य के अंतर्गत आने वाली भाषाएं बोली जाती हैं। हम देख सकते हैं कि एक छोटे से प्रांत में भी अनेक अलग अलग प्रकार के भाषा बोली जाती है।
अलग अलग भाषाओं का अपना एक क्षेत्र है और अपना साहित्य। जो उस प्रांत के संस्कृति और सभ्यता,सामाज,राजनैतिक,आर्थिक और भौगोलिक परिवेश के घटनाओं और कल्पनाओं के आधार पर साहित्यिक कृतियों में तब्दील करती है। और फ़िर उस रचनाओं को पढ़ कर उस प्रांत के बारे में एक विचारधारा बनाया जाता है और उसमे परिस्थितियों के अनुसार बदलाव किया जाता है। इसे उदाहरण से समझते हैं कि भारत में सती प्रथा, दहेज प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियों का समापन इसी तरह हुआ है या धीरे धीरे हो रहा है। जब हमारे समाज के कुरीतियों को लिखा गया फिर अलग अलग लोग इसके बारें में अलग अलग राय बनाया और फिर अंत में जहाँ बहुमत थी उसे प्रधानता दी गयी और ऐसे सामजिक कुरीतियों को खत्म किया जा रहा है।
हम जब भारतीय साहित्य की बात करते हैं तो इसका मतलब किसी एक या खास भाषाई साहित्य से नहीं होती है बल्कि इसका अभिप्राय भारत में बोली जाने वाली सभी भाषाई साहित्य से है। भारत मे भाषाई विविधता काफी अधिक है। जिसके कारण इसके साहित्यिक कृतियों में अलग भाषाई विषमताओं का प्रयोग काफ़ी देखने को मिलता है। और यह काफ़ी प्रचलन में हैं और इसकी लोकप्रियता अलग अलग भाषाओं में अनुवाद के बाद अधिक पसंद किया गया है। उदाहरण के लिए हम अपने देश के राष्ट्रगान को लेते हैं ।गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसकी रचना बंगला साहित्य में किया लेकिन लोकप्रियता इसको हिन्दी साहित्य में मिली।
दोनों भाषा भारतीय साहित्य की एक सम्मिलित स्वरूप है। एक दूसरे की संस्कृति और साहित्य धरोहर को बढ़ावा दे रही है। इसका मतलब है की इस साहित्य में भाषाई विविधताओं के वाबजूद इस साहित्य की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ता है। बल्कि इसकी लोकप्रियता और बढ़ ही जाती है। हालांकि जब इसका भाषाई अनुवाद एक भाषा से दुसरे में होता है तो कहीं कहीं कुछ कुछ शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं।
एक भाषा में किसी शब्द का प्रयोग सम्मान के लिए किया जाता तो दूसरे में उसी का प्रयोग अपमान के लिए हो जाता है। एक भाषा का शब्द दुसरे में बिना किसी झिझक के साथ प्रयोग किए जाते हैं। और उनका प्रचलन भी काफ़ी रहता है। जिससे आलोचना का शिकार होना पड़ता है।
लेकिन सबाल उठता है कि जब भाषाई विविधताओं के सम्मिलित रूप से ही भारतीय साहित्य की पहचान होती है ऐसे में ऐसे आलोचना की क्या जरूरत है? तो मेरे समझ से इस बदलते प्रस्थिति में जब हर भाषाओं की पृष्ठभूमि में बदलाव आ रहा है तो भारतीय साहित्य के मूल में परिवर्तन की आशंका के मद्देनजर यह एक मजबूत विकल्प है। क्योंकि आधुनिकीकरण के कारण समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिला है। जिसके के कारण सामाजिक पृष्ठभूमि में बहुत बदलाव देखने को मिलता है तो इस बात की आशंका भी बढ़ जाती है कि सामाजिक बदलाव के कारण भाषाई परिवर्तन ना हो। और इसलिए इसमें आलोचना की गुंजाइश है जो इसको आधुनिकीकरण के साथ-साथ अपनी संस्कृति का संरक्षण करने के लिए भी तैयार रखती है।
और भारतीय साहित्य
कि यही अलग पहचान इसे और साहित्य से अलग बनाती है। जो आदि काल से आधुनिक काल तक उत्थान
और पत्तन के साथ एक स्थिर गति से गतिमान है।
......अगले अंक में जारी ......