Monday, 29 November 2021

भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक विरासत !!!(3)

 

 भारतीय भाषाओं और साहित्य का विश्व पर प्रभाव !!!

 

 इन साहित्यकारों तत्कालिक परिस्तिथियों से लड़ते हुयें ना सिर्फ़ राष्ट्रवाद को उजागर किया ब्लकि भारतीय साहित्य के भविष्य का बचाव करने के लिए प्रयास किया है।क्योंकि इस दौर में जब भारत अपने आज़ादी के लिए लिये मसक्त कर रहा था। विश्व में वैश्वीकरण का प्रचार-प्रसार हो रहा था। या कहें की विश्व एकजुट हो रहा था। ऐसे में भाषाई एक जुटता अत्यंत आवश्यक हो गया था। क्योंकि विश्व में लगभग सभी जगहों पर अंग्रेज़ी सत्ता का वर्चस्व था,जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेज़ी भाषा का प्रचार-प्रसार तीव्र हो रहा था। जिसकी झलक भारत में देखा जा रहा था। 

और यह भाषा इतना प्रचलित हो चुका था लोगों का मानना था कि सिर्फ़ अंग्रेज़ी ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बोली और समझी जा सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ वैश्वीकरण के इस दौर में जब लोगो का एक जगह से दूसरे जगहों पर आना जाना आसान हो गया है, अपनी भाषा के साथ साथ अन्य भाषा को समझना और सिखना और भी आसान हो गया है।



 और एक जब एक राष्ट्र दूसरें के लिए बाजार बन गया है तो इसकी भी अनिवार्यता बढ़ गई की अपने प्रॉडक्ट्स,उसकी गुणवत्ता, अपनी बातें रखने के लिये लोगों को उनके स्थानीय भाषा में समझाने के लिए, पहले वो उसको खुद समझ ले। और चुकी भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजारों में से एक है,तो इसकी भाषा का विकास आसान हो गया है। आज जब विश्व में अलग-अलग विदेशी भाषाओं को  सीखने-सिखाने का होर चल रहा है।


 तो लोगों  की पसंद भारतीय भाषाओं का होना भी इस भाषा की बड़ी उपलब्धियों में है। उदाहरण के लिए अन्य राष्ट्रों में शैक्षणिक संस्थानों में विषय वस्तु के रुप में जोड़ा जाना एक बड़ी उपलब्धियों में है। भारतीय उत्पाद का जब विश्व भर में भारतीय भाषा में प्रचार-प्रसार होता है और लोग उसे उसी नाम से खरीदते हैं तो यह भारतीय भाषा की सबसे बड़ी उपलब्धता है। ऐसे ही जब दूसरें देश के नागरिक यँहा भ्रमण में आते है तो खुद को भारतीय भाषा में परिचित करवाने में अत्यधिक आनंदित महसूस करते हैं।


 जिसका मतलब है कि दूसरे लोग हमारी संस्कृति, भाषा को समझने की कोशिश में प्रयास कर रहे हैं। तो इसका मतलब यह है कि हम विकास के पथ पर अग्रसर है।आज इन्टरनेट के बढते प्रभाव के बावजूद भारतीय भाषाओं का प्रचलन भारतीय साहित्य के विकास के लिए सबसे मजबूत आधार बन रहा है। जो विश्व भर में इसके प्रचार-प्रसार के लिए उचित कदम उठाएँ  जा रहे हैं। अक्सर देखने-सुनने को मिलता है कि लोग अपनी भाषा को भुल रहें है। लोगों की पसंद दुसरी भाषाएं बन रही है। जो की गलत नहीं है मगर कुछ नया  सिखने की चाहत में पुरानी चीजों या अपनी चीजों  को भुल जाना शुभ संकेत नहीं है। अन्य भाषाओं के सिखने का प्रयास में अपनी भाषाओं को नजरअंदाज करना भविष्य के लिए के खतरे की घंटी है। 

क्योंकि आज जब वैश्वीकरण के कारण हर कोई एकजुट होकर विश्व विकास के लिए अपना हम योगदान दे रहा है, ऐसे में अगर हम अपनी अस्मिता , पहचान आदि की रक्षा करने में असमर्थ हो जाय तो यह विकास की सही परिभाषा नहीं होगी। हम देखते हैं कि हमारे साहित्यिक कृतियों में विदेशी शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में मिलता है, जिसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे पास शब्दों की कमियां है, बल्कि हमारा साहित्य में इतनी विशालता है कि विश्व की कोई भाषा, साहित्य क्यों ना हो उसका स्वरूप इसके सामने छोटा-सा दिखाई देता है।


 आज अँग्रेजी साहित्य की लोकप्रियता विश्व भर में है।  लेकिन जब हम इसके स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं तो मालूम होगा कि यह अलग अलग रूप में है।  जैसे अमेरिकन इंग्लिश, ब्रिटिश इंग्लिश आदि। इसके बोलने का तरीका, लिखने का तरीका सब कुछ अलग अलग है।  लेकिन भारतीय साहित्य के साथ ऐसा नहीं है। हालांकि इसमें अपवाद हैं लेकिन इसका खास असर नहीं पड़ता।  क्योंकि ऐसे अपवाद वहीं देखने को मिलता है जहाँ उससे संबंधित लोगों का एक जगह से दूसरे स्थान पर चले जाते या वहाँ के स्थानीय भाषाओं, संस्कृति, सभ्यता के अनुरूप खुद को ढाल नहीं पाते। अगर देखा जाए तो यह भाषाओं के रूप में समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन है। जिसकी ज़रूरत भी होती है क्योंकि यह भाषाई विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

 

 

भारतीय साहित्य में भाषाई विविधता !!!

अब हम बात करते है भारतीय साहित्य में भाषाओं के विविधताओं का जो इस साहित्य को औरों से अलग बनाती है और आलोचना की वजह भी बनाती है। भारत विविधताओं का ऐसा संगम है जहाँ सामजिक, वैचारिक, राजनैतिक, के साथ-साथ भाषाई विभेद का दर्शन भी मिलता है।  इसके अलग अलग प्रान्तों में अनेकों भिन्न भिन्न प्रकार के भाषा बोली और समझी जाती है।जो भारत के भौगोलिक सीमाओं का भी निर्धारण करती है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की कुल संख्या 222 है।  इस आकड़ों के हिसाब से अनुमानित किया जा सकता है कि भारत भाषाओं के क्षेत्र में कितना समृद्ध और शक्तिशाली है।

 इतने लंबे क्षेत्रफल और भाषाओं में विविधताओं के कारण किसी एक व्यक्ति या संस्था द्वारा हरेक भाषा का अवलोकन किया जाना मशक्कत भरा है। और भाषाओं का सही जानकारी मिलना भी थोड़ा कठिन है। इसलिए भारत में बोली जाने वाली भाषाओं को वर्गीकरण किया गया है जिसमें अलग अलग भाषाओं को वहाँ के रहन सहन, खान पान और सामाजिक व्यवहार के अनुसार वर्गीकृत किया गया है। 


इसका वर्गीकरण हिन्द आर्य, द्रविड़, ऑस्ट्रो- एशियाटिक, चीनी तिब्बती, अंडमानी आदि विश्व भाषा समूह में वर्गीकृत किया गया है। इसके वर्गीकरण किये जाने आधार इसके बोलने लिखने और पढ़ने का सलीका से तय किया गया है। क्योंकि बहुत से भाषाओं का पढ़ने ,बोलने ,लिखने तरीका मिलता जुलता है। जिसे आसान शब्द में लिपी  कहते हैं। भारत के लगभग दो तिहाई से अधिक आवादी में हिन्द आर्य के अंतर्गत आने वाली भाषाएं बोली जाती हैं। हम देख सकते हैं कि एक छोटे से प्रांत में भी अनेक अलग अलग प्रकार के भाषा बोली जाती है।

 अलग अलग भाषाओं का अपना एक क्षेत्र है और अपना साहित्य। जो उस प्रांत के संस्कृति और सभ्यता,सामाज,राजनैतिक,आर्थिक और भौगोलिक परिवेश के घटनाओं और कल्पनाओं के आधार पर साहित्यिक कृतियों में तब्दील करती है। और फ़िर उस रचनाओं को  पढ़ कर उस प्रांत के बारे में  एक विचारधारा बनाया जाता है और उसमे परिस्थितियों के अनुसार बदलाव किया जाता है। इसे उदाहरण से समझते हैं कि भारत में सती प्रथा, दहेज प्रथा आदि सामाजिक कुरीतियों का समापन इसी तरह हुआ है या धीरे धीरे हो रहा है। जब हमारे समाज के कुरीतियों को लिखा गया फिर अलग अलग लोग इसके बारें में अलग अलग राय बनाया और फिर अंत में जहाँ बहुमत थी उसे प्रधानता दी गयी और ऐसे सामजिक कुरीतियों को खत्म किया जा रहा है। 

हम जब भारतीय साहित्य की बात करते हैं तो इसका मतलब किसी एक या खास भाषाई साहित्य से नहीं होती है बल्कि इसका अभिप्राय भारत में बोली जाने वाली सभी भाषाई साहित्य से है। भारत मे भाषाई विविधता काफी अधिक है। जिसके कारण इसके साहित्यिक कृतियों में अलग भाषाई विषमताओं का प्रयोग काफ़ी देखने को मिलता है। और यह काफ़ी प्रचलन में हैं और इसकी लोकप्रियता अलग अलग भाषाओं में अनुवाद के बाद अधिक पसंद किया गया है। उदाहरण के लिए हम अपने देश के राष्ट्रगान को लेते हैं गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसकी रचना बंगला साहित्य में किया लेकिन लोकप्रियता इसको हिन्दी साहित्य में मिली।

  दोनों भाषा भारतीय साहित्य की एक सम्मिलित स्वरूप है। एक दूसरे की संस्कृति और साहित्य धरोहर को बढ़ावा दे रही है। इसका मतलब है की इस साहित्य में भाषाई विविधताओं के वाबजूद इस साहित्य की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ता है।  बल्कि इसकी लोकप्रियता और बढ़ ही जाती है। हालांकि जब इसका भाषाई अनुवाद एक भाषा से दुसरे में होता है तो कहीं कहीं कुछ कुछ शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। 

एक भाषा में किसी शब्द का प्रयोग सम्मान के लिए किया जाता तो दूसरे में उसी का प्रयोग अपमान के लिए हो जाता है। एक भाषा का शब्द दुसरे में बिना किसी झिझक के साथ प्रयोग किए जाते हैं। और उनका प्रचलन भी काफ़ी रहता है। जिससे आलोचना का शिकार होना पड़ता है। 


लेकिन सबाल उठता है कि जब भाषाई विविधताओं के सम्मिलित रूप से ही भारतीय साहित्य की पहचान होती है ऐसे में ऐसे आलोचना की क्या जरूरत है? तो मेरे समझ से इस बदलते प्रस्थिति में जब हर भाषाओं की पृष्ठभूमि में बदलाव आ रहा है तो भारतीय साहित्य के मूल में परिवर्तन की आशंका के मद्देनजर यह एक मजबूत विकल्प है। क्योंकि आधुनिकीकरण के कारण समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिला है। जिसके के कारण सामाजिक पृष्ठभूमि में बहुत बदलाव देखने को मिलता है तो इस बात की आशंका भी बढ़ जाती है कि सामाजिक बदलाव के कारण भाषाई परिवर्तन ना हो।  और इसलिए इसमें आलोचना की गुंजाइश है जो इसको आधुनिकीकरण के साथ-साथ अपनी संस्कृति का संरक्षण करने के लिए भी तैयार रखती है। 


और भारतीय साहित्य कि यही अलग पहचान इसे और साहित्य से अलग बनाती है। जो आदि काल से आधुनिक काल तक उत्थान और पत्तन के साथ एक स्थिर गति से गतिमान है।

......अगले अंक में जारी ......

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Tuesday, 16 November 2021

भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक विरासत !!! (2)

 

स्वतंत्रता संग्राम और साहित्यिक भूमिकाएं!!!

अगर भारतीय साहित्य के भाषाई संगम की बात की जाई तो मेरे समझ से भारतीय स्वाधीनता-संग्राम इसका सबसे बड़ा प्रत्यक्ष होगा क्योंकि यही एक दौर था जब अलग-अलग जाती, सम्प्रदाय, समुदाय, राज्य के लोगों ने पहली बार एकता के बंधन में भी खुल कर जीने की कला सिखा था। अर्थात भारत के किसी भी जाती, समुदाय,वर्ग, आदि के लोगों ने एक साथ मिलकर अँग्रेजी हुकुमत के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। जिसमें साहित्त्य ने बड़ी भुमिका निभाई। क्योंकि इससे पहले तो हम आपस में कभी जाती के नाम पर, समुदाय के नाम पर , धर्म के नाम पर ,कस्बों,राज्य आदी के नाम पर एक दूसरें को देखना तक पसंद नहीं करते। लेकिन साहित्य ने तब भी हमें जोड़े रखा था। भाषा कोई भी हो, रचना किसी की भी हो,लेकीन उसका सार लोगों के अंदर छुपे हुए देशभक्ति की भावना को बढ़ाना ही था। कैसे भारतीय समाज को गुलामी के पिंजरे से आजाद कर उन्हें प्यार ,मोहब्बतें के जंजीरों में जकर दिया। प्राकृति ने इस धरा की रचना की और अपने हिसाब से अलग-अलग भौगोलिक सीमाओं का विस्तार कर दिया। जिसका निर्णय नदियों,नाले, पर्वत,पहाड़, समुद्रों, आदी के आधार पर किया जाने लगा। और वहाँ जब मनुष्यों की उपस्तिथि की आहट सुनाई देने लगी तो मानव ने प्राकृति विविधताओं के बिच अपने विकास के लिए लम्बे  समय तक संघर्षरत रहा,लेकिन सफलता हासिल नहीं हो सका। लेकिन जब भाषा की उत्पत्ति हुई तो इस विविधता के बिच लोगों का जीना आसान हो गया। फ़िर साहित्य ने इसके पूरे परिवेश को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई। कुछ यही कार्य साहित्य ने लोगों मे राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने के लिए किया। सहित्य और सामाज दोनो एक दूसरे के पूरक हैं और दोनो एक दूसरे को प्रभावित करतें है। यही वजह है कि आज विश्व में कोई भी गतिविधि का सार्थकता और निर्थकता को मापने का पैमाना एक ही है,वो है साहित्य। इसलिऐ जब किसी के भविष्य परिकल्पना या भूत का जिक्र किया जाता है साहित्यिक कृतियों को पलटा जरुर जाता है। ऐसे में अगर हम भारतीय स्वाधीनता-संग्राम की बात करें और साहित्य को अनदेखा कर दिया जाय तो यह उस किरदार की तरह होगी जिसकी कोई कहानी ना हो। क्योंकि सामाज के तत्कालिक परिस्तिथियों के माँग लोगों को एक जुट करने में साहित्य कभी भी पीछे नहीं रहा। और अपनी अलग-अलग साहित्यिक कृतियों के सहारे स्वाधीनता के आग को तीव्र कर आम लोगों में राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम को उजागर करने का काम किया है। और देश प्रेम की भावना से ओत प्रोत ऐसी ऐसी रचनाएँ लिखी जिसका स्मरण आज भी रौंगटे खड़े करने के लिए पर्याप्त है। मैथिलीशरण गुप्त की पँक्ति….

' जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है वह नर नहीं,नरपशु निरा है मृतक समान हैं.....'

 जिसके माध्यम से उन्होंने देशभक्ति विहीन मानव को मृतक समान समझा है। ऐसे कई रचनाएँ लोगों के अंदर भारतीयता को जगाने के रची गई। अंग्रेज़ों द्वारा सताये जा रहे निरीह भारतीय जनता के व्यथा को समाज के सम्पन्न और स्वार्थी लोगों के सामने इतने आसान शब्दों में रख दिया की जिसके लिए और जिसके बारे में लिखा गया उसको छोड़ कर दूसरें सिर्फ़ दाँत तले उंगली दबाते रहे। अलग-अलग हिस्सों के अलग-अलग भाषाई कवि लेखकों ने राष्ट्रीयता एवं देश प्रेम की ऐसी गंगा बहाई, जिसके तीव्र आवेग ने आम लोगों के अंदर राष्ट्रीयता की प्रेम की ऐसा गहरा प्रभाव डाला कि विदेशी हुकूमत उसमें डूब गई। भारतीय साहित्यकारों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही की अपनी रचनाओं के माध्यम से आमलोगों को ना सिर्फ़ राष्ट्रवाद, देशप्रेम, के लिये प्रोत्साहित किया बल्कि इस लड़ाई में खुद सिरकत कर आम लोगों को उत्साहित करने का काम भी  किया। बंगाली,मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, उर्दू, आदि साहित्यकारों की रचनाएँ तो अलग अलग भाषाओं में थी मगर काम एक ही था आमलोगों के अंदर देशप्रेम के भावनाएं जागृत करना और लोगों को आन्दोलित करना। भारतीय साहित्य के किसी भी भाषाओं के साहित्यकार ने आन्दोलन में अपना योगदान देने से पिछे नहीं रहे। तमिल साहित्यकार रामालिंग स्वामी, चिदम्बरम, पिल्लई, बी बी एस अय्यर, तेलगू के विरेश लिंगम,मराठी में लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव रानाडे ,गुजराती में महात्मा गाँधी, काका कालेलकर, उमाशंकर, बंगला के विद्यासागर, टैगोर, बंकिमचंद्र चटर्जी, और शरदचंद्र चटर्जी ,उड़िया में राधानाथ, पंजाबी में गुरुमुख,हिरासिंह,उर्दू में इकबाल, हिन्दी में भारतेंदु, त्रिपाठी, दिनकर, आदि सैकड़ों नामी गुमनामी कवियों ने देशप्रेम की गंगा बहाई।आम जनमानस मे राष्ट्रीय भावना और देशप्रेम,देशभक्ति को बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय चेतना का उजागर करना साहित्य और इन साहित्यकारों का प्रथम उदेश्य था जिसके लिये हर किसी ने प्रयास किया। व्यंग्य, छायावाद, मानवीकरण, आदि के साथ साहित्यिक शब्दों को अलंकृत करना, देश के पृकृतिक सौंदर्य को कभी श्रिंगार,तो कभी आम जनता के वेदनाओं को करुण , तो कभी आम जनमानस को आन्दोलित करने के लिए वीर रस की रचनाओं से देशभक्ति के अमुल्य रस में सराबोर कर दिया।

मैथिलीशरण गुप्त की पँक्तियाँ…..

' हम कौन थे? क्या हो गये है? और क्या होंगे अभी?

यह सोचने को विवश करती है कि क्या सच में हम गुलाम हो सकते थे? क्योंकि हमारा इतिहास तो बताता है कि हम इतने कमजोर तो नहीं थे कि कोई हमसे हमारी आज़ादी छिन ले? अगर छिन भी लिया तो क्या हम इतने सबल नहीं की उससे उसकी पहचान छिन ले? कथा सम्राट प्रेमचंद, जिनकी रचनाओं ने जनता को इस तरह  प्रभावित कर दिया कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनता का हुंकार इतना तीव्र हो गया। जिससे उनकी रचनाओं को विदेशी शासन के रोष का शिकार होना पड़ा और बहुत सी रचनाओं पर रोक लगा दी गई। लेकिन उन्होंने अपनी रचनाएँ प्रकाशित करना नहीं छोड़ा और अब उनहोंने दूसरे नाम से रचनाएँ प्रकाशित करना प्रारंभ दिया । उनकी पंक्तियाँ .....

' मै विद्रोही हूं जग में विद्रोह कराने आया हूँ, क्रांति क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूँ ......'

आज भी मानों कह रही हो,वर्तमान में जो सामजिक आरजक्ता है उसे दूर करने के लिए ही यह रची गई है। तीव्र होते आन्दोलन के बिच सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता

 

'झाँसी की रानी '

                                                          

महिलाओं को पिछड़े हुए समझने वाले लोगों को विचारधारा बदलने पर मजबूर कर दिया था। और हकीकत भी कुछ ऐसी ही थी।  माखनलाल चतुर्वेदी ने तो फ़ूलों का मानवीकरण करते हुए कहा

 

 'मुझे तोड़ लेना वनमाली , उस पथ पर तुम देना फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पर जाएं वीर अनेक '

 

मानो प्राकृतिक का वह कोमल प्राणी कह रहा हैं कि खुद इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह अपने जन्मस्थान में हो रहे अत्याचार, अन्याय आदि का सामना कर सकें मगर उसके मातृभूमि पर जो गहरा संकट छाया है उसको दूर करने के लिए जो वीर सपूत अपने प्राणों की चिंता किए बगैर देश के लिए न्यौछावर हो रहे उनके चरणों में गिर कर वह भी इस संसारिक कष्टों से मुक्त हो जाय, ताकि उसे किसी नायकों द्वारा किसी नायिकाओं के केसों में गूँथना,या किसी भक्त के द्वारा अपने भगवान को अर्पित करने, मे उपयोग नहीं किया जाय और उसे तरपना पड़े। और कमजोर पड़ रही अंग्रेज़ी हुकुमत को राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्ति…

 

'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है '

 

जैसे आदेश दे रही हो अंग्रेज़ों को कि अब तेरे दिन गए, अब भारत भारतीयों का है। इकबाल की पंक्ति….

 'सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा '

                                                                    

सारे दुखों को, आपसी मतभेद को खत्म कर देती हैं और हम एक सूत्र में बँध जाते हैं। अगर हम स्वाधीनता के समय भारतीय साहित्य की भूमिका का अवलोकन करें तो हम पाएंगे कि यह साहित्य स्वाधीनता संग्राम के समय हो रहे सामजिक, राजनैतिक गतिविधियों से प्रभावित हो रहा था, मगर जैसे जैसे यह आन्दोलन अपने मुकाम पर पहुंचने लगा और पहुंचा इसने समाज को भी प्रभावित कर दिया जैसा कि इसका प्राकृतिक गुण है। जिसका परिणाम हुआ कि आजादी मिलने तक और इसके कुछ दिनों के बाद तक लगभग लगभग बहुत सी सामजिक कुरीतियों का समापन हो गया, जो मानव को कलंकित करतीं थीं।

....अगले  अंक में  जारी .....

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Saturday, 13 November 2021

भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक विरासत !!!

 

कहते हैं, कि किसी का विकास उस के समय,परिवेश, परिस्तिथि, और सँस्कृति के आधार पर होता है। इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं, मगर बहुत कम देखा गया है कि ऐसे अपवाद मिलें हो। और जब हम साहित्य की बात करते हैं तो यह समझना और आसान हो जाता है कि इसका प्रादुर्भाव और विकास कब और कैसे हुआ है। क्योंकि इसका आधार तो सामाजिक बदलाव माना गया है। जिसका एक मात्र कारण दोनो का एक दूसरे का पूरक होना है। और अगर भारतीय साहित्य की बात की जाए तो इसको नाकार नहीं जा सकता है कि इसका प्रादुर्भाव और विकास भारतीय सँस्कृति के अनुरुप हूआ है। क्योंकि यह किसी खास व्यक्ति,भाषा,या प्रांत का समर्थन या आलोचना नहीं करता। बल्कि यह भारत के जर्रे जर्रे को जोड़कर अपनी एक अलग तस्वीर वयां करता है,जो इसके मूल स्वरूप से काफ़ी अलग संरचना है। जिसकी विशालता समुद्र से भी बड़ा है। भारत के अलग-अलग समाज के अलग-अलग सँस्कृति, रहन सहन ,खान पान,भाषा,आदि का सम्मिलित स्वरुप है। इस साहित्य पर  सामजिक विखंडन का दुस्प्राभव भी पड़ता है तो सामजिक अखंडता का सतप्रभाव  भी पड़ता है। हिमालय से लेकर कन्या कुमारी तक और  ब्रह्मपुत्र की घाटियाँ से सिंधु तक सामाजिक,धार्मिक, राजनैतिक, भाषाई विविधताओं के बावजूद आपसी एकता भारतीय साहित्य को एक अलग पहचान देती है,जो इसके अलग अलग सँस्कृति,सभ्यता,खान पान, रहन सहन,धार्मिक स्वतंत्रता, वैचारिक मतभेद आदी का समावेश इसकी कल्पना और हकीक़त को एक नया स्वरुप प्रदान करता है। जँहा….

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।

  की अमृत वर्षा सदा ही होती रहती है और यँहा का ज़र्रा ज़र्रा ना सिर्फ़ अपनी ब्लकि विश्व कल्याण के लिए हमेशा तत्पर रहता है और अपने हालातों के अनुसार अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देता है ।अपने अतीत के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए चलने के कारण आज आर्थिक,समाजिक रूप से शक्तिशाली ना होते हुयें भी,विश्व इसकी वन्दना करता है। और शायद इन्हीं सब कारणों के कारण आज यह देश अपनी गौरवपूर्ण इतिहास, एवं एक विकसित और समृद्ध भविष्य के परिकल्पना में अपना वर्तमान जि रहा है।अपने भौगोलिक बनावट के कारण सँस्कृति और लौकिक विषमताओं की मज़बूरी के बावजूद अपनी अनंत विस्तार की परिकल्पना को संजोए हुए धार्मिक,राजनैतिक,और सामाजिक अखंडता के अलग-अलग धाराओं को सांस्कृतिक संगम प्रदान कर रही है।


साहित्यिक परिचय और इसका विभाजन !!!

अगर हम भारतीय साहित्य की बात करतें हैं तो यँहा भी हमें भाषाई , सामजिक,और लौकिक विषमता देखने को मिलता है। जँहा हमें इसके अलग अलग आध्याय को जानना होगा। जिसका एक मात्र कारण यह है कि यह साहित्य भारत के अलग-अलग विधा,भाषा,समाज, सभ्यता, सँस्कृति, भौगोलिक स्वरुप,को प्रतिविंबीत करता है।अगर हम किसी भी एक पहलू को नजरअंदाज करते हैं तो यह भारतीय साहित्य की पूर्ण जानकारी नहीं हो सकती। इस साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता  तो यह है कि इसका प्रादुर्भाव अलग-अलग साहित्यिक कृतियों के अपभ्रंश के समावेश से हुआ है। और इसकी पहचान इसके अलावा इसके अलग-अलग लौकिक,साहित्यिक विविधता, वैदिक सभ्यता,और क्षेत्रीय प्रभाव के कारण भी विकसित हुई है। उदाहरण के तौर पर हम इसके अलग-अलग स्वरुप को देख सकते हैं। चाहे वह वैदिक काल हो या आधुनिक काल, साहित्यिक कृतियाँ अपने अंदर सामजिक और धार्मिक वातावरण को अपने पन्नों में समाहित किये हुए        विश्व को आईना दिखाने के लिए प्रतिबद्ध थी और है। महाकाव्य,पुराण,वेद,सूत्र और स्मृतियों,समाजिक परिस्तिथि, इतिहास, शिक्षा, प्रकृति आदी को अलग-अलग भाषाओं में नाट्य,गध्य ,पध्य के रुप में साहित्यकारों ने सामज के अलग-अलग हिस्सों को कभी उदाहरण के तौर पर तो कभी वर्तमानस्थिति के रुप में ऐसे  पेश किया है कि वास्तविकताओं कल्पनाओं के बीच अंतर कर पाना पाठकों के लिए आसान नहीं होगा। अपने कलम की स्याही को इस कदर मजबूर कर दिया की वर्तमान, अतीत और भविष्य के परिस्तिथियों का सजीव चित्रांकन प्रस्तुत करें।जिसके फलस्वरूप  आज सामजिक वर्गीकरण का एक आधार साहित्य को भी माना जा रहा है। जिसमें अलग-अलग भौगोलिक परिवेश के बहुभाषी कवि,लेखकों,ने सिर्फ़ समाज के सभी वर्गों के रहन सहन,खान पान,को अपने दर्शन,भक्ति,कविता, नाटक, कहानी के रूप में प्रस्तुत किया और आज यह रचनाएँ  ग्रंथ,उपनिषद,महाकाव्य, काव्य,उपन्यास, आदी में तब्दील हो गए। और इसे ही आज भारतीय साहित्य की सामाजिक, राजनैतिक,और धार्मिक दर्शन का आधार माना जाने लगा है।कहा जाता है कि भाषा और विचारधारा के समावेश से साहित्य का निर्माण होता है। और कोई भी विचारधारा या भाषा किसी विशेष पृवति या किसी विशेष सामाजिक कारण से प्रभावित होता है। परिणामस्वरूप यह सामज को भी प्रभावित करता है और फ़िर इसमें साहित्यिक परिवर्तन देखने को मिलता है। जिसका कारण यह है कि साहित्य सामाजिक घटनाएं और परिकल्पनाओं का आधार बिन्दु है। ऐसे में अगर किसी निश्चित समय में कोई ऐसा कवि और लेखक जो अपने कलम की ताकत से समाज के वर्तमान और भविष्य को बदलने की ताकत रखता है या बदलता है तो उस दौर के साहित्य में भी परिवर्तन देखने को मिलता है जिसके अनेक उदाहरण है।और यही परिवर्तन भारतीय साहित्य को लोकप्रिय बनाने का काम किया है। जो की इसके विकसित होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। क्योंकि ऐसा कहा जाता है ना कि अगर किसी में बदलाव हो रहा तो उसका विकास हो रहा है। लेकिन इस बदलाव का यह मतलब नहीं है की आप अपनी सँस्कृति को ही भुल जाय। जो की इस सहित्य में हमे आसानी से देखने को नहीं मिलता है कि अपने आरंभ से लेकर आज तक यह साहित्य अपने मुल को भुला हो। हालांकि इसकी उत्पति जिस से हूई है उसमें से कुछ तो सिर्फ़ नाम के लिए रह गए हैं। फ़िर भी इस की लोकप्रियता कम नहीं हुई। अलग-अलग समय में अलग-अलग रचनाएँ जो समाज के वर्तमानस्थिति के प्रतिकूल थे, उसमें बदलाव लाना इस साहित्य को प्रस्तुत करने का एक अलग प्रयास था जिसमें इसके लेखक और कवियों ने सफलता हासिल की। इस साहित्य के शैलियों में बदलाव की आवश्यकता इसलिये भी जरुरी थी क्योंकि विविधताओं के कारण किसी एक भाषा या विचारधाराओं के प्रति लोगों का झुकाव असंभव हो सकता था। हालांकि यह झुकाव अब भी नहीं हो पा रहा जब की हम इतनें विकसित हो चुके हैं और आधुनिकीकरण में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए कदम उठा रहें हैं। ऐसे में यह झुकाव तब कैसे संभव हो सकता था। और अध्ययन की सुबिधा,साहित्यिक समझ,और सबसे बड़ी बात इस साहित्य के विकास के लिए इसका विभाजन किया गया। और चुकी एक ही समय में समाज में अलग-अलग परिवर्तन हुयें है इसलिए साहित्य का विभाजन भी समय और परिस्तिथि के अनुसार हुआ है। जिसका आधार ऐतिहासिक काल,सासन काल,एवं साहित्यकारों के साहित्यिक रचनाओं और उसमें परिवर्तन के आधार पर किया गया।   जिसमें आदिकाल से आधुनिक काल,एलिज़ाबेथ से मराठा युग,और फ़िर भारतेंदु, प्रसाद,पंत, आदि के अनुसार भी विभाजन देखने को मिलता है। प्रेमचंद के आने से हिंदी साहित्य को एक अलग लोकप्रियता मिली। ठिक उसी तरह से अलग-अलग राजनेताओं, सामाज सुधारकों ने भी साहित्यिक विभाजन में अपना अपना योगदान दिया। जिसका आधार सामाजिक, रास्ट्रीय,और सांस्कृतिक आन्दोलन था। और अलग-अलग समय में अलग-अलग पहलुओं के कारण साहित्य में इतनें बदलाव देखने को मिला की साहित्यिक विभाजन भी साहित्य के विभाजन का आधार बना।

.........अगले अंक में ...

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संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

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