Tuesday, 16 November 2021

भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक विरासत !!! (2)

 

स्वतंत्रता संग्राम और साहित्यिक भूमिकाएं!!!

अगर भारतीय साहित्य के भाषाई संगम की बात की जाई तो मेरे समझ से भारतीय स्वाधीनता-संग्राम इसका सबसे बड़ा प्रत्यक्ष होगा क्योंकि यही एक दौर था जब अलग-अलग जाती, सम्प्रदाय, समुदाय, राज्य के लोगों ने पहली बार एकता के बंधन में भी खुल कर जीने की कला सिखा था। अर्थात भारत के किसी भी जाती, समुदाय,वर्ग, आदि के लोगों ने एक साथ मिलकर अँग्रेजी हुकुमत के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। जिसमें साहित्त्य ने बड़ी भुमिका निभाई। क्योंकि इससे पहले तो हम आपस में कभी जाती के नाम पर, समुदाय के नाम पर , धर्म के नाम पर ,कस्बों,राज्य आदी के नाम पर एक दूसरें को देखना तक पसंद नहीं करते। लेकिन साहित्य ने तब भी हमें जोड़े रखा था। भाषा कोई भी हो, रचना किसी की भी हो,लेकीन उसका सार लोगों के अंदर छुपे हुए देशभक्ति की भावना को बढ़ाना ही था। कैसे भारतीय समाज को गुलामी के पिंजरे से आजाद कर उन्हें प्यार ,मोहब्बतें के जंजीरों में जकर दिया। प्राकृति ने इस धरा की रचना की और अपने हिसाब से अलग-अलग भौगोलिक सीमाओं का विस्तार कर दिया। जिसका निर्णय नदियों,नाले, पर्वत,पहाड़, समुद्रों, आदी के आधार पर किया जाने लगा। और वहाँ जब मनुष्यों की उपस्तिथि की आहट सुनाई देने लगी तो मानव ने प्राकृति विविधताओं के बिच अपने विकास के लिए लम्बे  समय तक संघर्षरत रहा,लेकिन सफलता हासिल नहीं हो सका। लेकिन जब भाषा की उत्पत्ति हुई तो इस विविधता के बिच लोगों का जीना आसान हो गया। फ़िर साहित्य ने इसके पूरे परिवेश को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई। कुछ यही कार्य साहित्य ने लोगों मे राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने के लिए किया। सहित्य और सामाज दोनो एक दूसरे के पूरक हैं और दोनो एक दूसरे को प्रभावित करतें है। यही वजह है कि आज विश्व में कोई भी गतिविधि का सार्थकता और निर्थकता को मापने का पैमाना एक ही है,वो है साहित्य। इसलिऐ जब किसी के भविष्य परिकल्पना या भूत का जिक्र किया जाता है साहित्यिक कृतियों को पलटा जरुर जाता है। ऐसे में अगर हम भारतीय स्वाधीनता-संग्राम की बात करें और साहित्य को अनदेखा कर दिया जाय तो यह उस किरदार की तरह होगी जिसकी कोई कहानी ना हो। क्योंकि सामाज के तत्कालिक परिस्तिथियों के माँग लोगों को एक जुट करने में साहित्य कभी भी पीछे नहीं रहा। और अपनी अलग-अलग साहित्यिक कृतियों के सहारे स्वाधीनता के आग को तीव्र कर आम लोगों में राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम को उजागर करने का काम किया है। और देश प्रेम की भावना से ओत प्रोत ऐसी ऐसी रचनाएँ लिखी जिसका स्मरण आज भी रौंगटे खड़े करने के लिए पर्याप्त है। मैथिलीशरण गुप्त की पँक्ति….

' जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है वह नर नहीं,नरपशु निरा है मृतक समान हैं.....'

 जिसके माध्यम से उन्होंने देशभक्ति विहीन मानव को मृतक समान समझा है। ऐसे कई रचनाएँ लोगों के अंदर भारतीयता को जगाने के रची गई। अंग्रेज़ों द्वारा सताये जा रहे निरीह भारतीय जनता के व्यथा को समाज के सम्पन्न और स्वार्थी लोगों के सामने इतने आसान शब्दों में रख दिया की जिसके लिए और जिसके बारे में लिखा गया उसको छोड़ कर दूसरें सिर्फ़ दाँत तले उंगली दबाते रहे। अलग-अलग हिस्सों के अलग-अलग भाषाई कवि लेखकों ने राष्ट्रीयता एवं देश प्रेम की ऐसी गंगा बहाई, जिसके तीव्र आवेग ने आम लोगों के अंदर राष्ट्रीयता की प्रेम की ऐसा गहरा प्रभाव डाला कि विदेशी हुकूमत उसमें डूब गई। भारतीय साहित्यकारों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही की अपनी रचनाओं के माध्यम से आमलोगों को ना सिर्फ़ राष्ट्रवाद, देशप्रेम, के लिये प्रोत्साहित किया बल्कि इस लड़ाई में खुद सिरकत कर आम लोगों को उत्साहित करने का काम भी  किया। बंगाली,मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, उर्दू, आदि साहित्यकारों की रचनाएँ तो अलग अलग भाषाओं में थी मगर काम एक ही था आमलोगों के अंदर देशप्रेम के भावनाएं जागृत करना और लोगों को आन्दोलित करना। भारतीय साहित्य के किसी भी भाषाओं के साहित्यकार ने आन्दोलन में अपना योगदान देने से पिछे नहीं रहे। तमिल साहित्यकार रामालिंग स्वामी, चिदम्बरम, पिल्लई, बी बी एस अय्यर, तेलगू के विरेश लिंगम,मराठी में लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव रानाडे ,गुजराती में महात्मा गाँधी, काका कालेलकर, उमाशंकर, बंगला के विद्यासागर, टैगोर, बंकिमचंद्र चटर्जी, और शरदचंद्र चटर्जी ,उड़िया में राधानाथ, पंजाबी में गुरुमुख,हिरासिंह,उर्दू में इकबाल, हिन्दी में भारतेंदु, त्रिपाठी, दिनकर, आदि सैकड़ों नामी गुमनामी कवियों ने देशप्रेम की गंगा बहाई।आम जनमानस मे राष्ट्रीय भावना और देशप्रेम,देशभक्ति को बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय चेतना का उजागर करना साहित्य और इन साहित्यकारों का प्रथम उदेश्य था जिसके लिये हर किसी ने प्रयास किया। व्यंग्य, छायावाद, मानवीकरण, आदि के साथ साहित्यिक शब्दों को अलंकृत करना, देश के पृकृतिक सौंदर्य को कभी श्रिंगार,तो कभी आम जनता के वेदनाओं को करुण , तो कभी आम जनमानस को आन्दोलित करने के लिए वीर रस की रचनाओं से देशभक्ति के अमुल्य रस में सराबोर कर दिया।

मैथिलीशरण गुप्त की पँक्तियाँ…..

' हम कौन थे? क्या हो गये है? और क्या होंगे अभी?

यह सोचने को विवश करती है कि क्या सच में हम गुलाम हो सकते थे? क्योंकि हमारा इतिहास तो बताता है कि हम इतने कमजोर तो नहीं थे कि कोई हमसे हमारी आज़ादी छिन ले? अगर छिन भी लिया तो क्या हम इतने सबल नहीं की उससे उसकी पहचान छिन ले? कथा सम्राट प्रेमचंद, जिनकी रचनाओं ने जनता को इस तरह  प्रभावित कर दिया कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनता का हुंकार इतना तीव्र हो गया। जिससे उनकी रचनाओं को विदेशी शासन के रोष का शिकार होना पड़ा और बहुत सी रचनाओं पर रोक लगा दी गई। लेकिन उन्होंने अपनी रचनाएँ प्रकाशित करना नहीं छोड़ा और अब उनहोंने दूसरे नाम से रचनाएँ प्रकाशित करना प्रारंभ दिया । उनकी पंक्तियाँ .....

' मै विद्रोही हूं जग में विद्रोह कराने आया हूँ, क्रांति क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूँ ......'

आज भी मानों कह रही हो,वर्तमान में जो सामजिक आरजक्ता है उसे दूर करने के लिए ही यह रची गई है। तीव्र होते आन्दोलन के बिच सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता

 

'झाँसी की रानी '

                                                          

महिलाओं को पिछड़े हुए समझने वाले लोगों को विचारधारा बदलने पर मजबूर कर दिया था। और हकीकत भी कुछ ऐसी ही थी।  माखनलाल चतुर्वेदी ने तो फ़ूलों का मानवीकरण करते हुए कहा

 

 'मुझे तोड़ लेना वनमाली , उस पथ पर तुम देना फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पर जाएं वीर अनेक '

 

मानो प्राकृतिक का वह कोमल प्राणी कह रहा हैं कि खुद इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह अपने जन्मस्थान में हो रहे अत्याचार, अन्याय आदि का सामना कर सकें मगर उसके मातृभूमि पर जो गहरा संकट छाया है उसको दूर करने के लिए जो वीर सपूत अपने प्राणों की चिंता किए बगैर देश के लिए न्यौछावर हो रहे उनके चरणों में गिर कर वह भी इस संसारिक कष्टों से मुक्त हो जाय, ताकि उसे किसी नायकों द्वारा किसी नायिकाओं के केसों में गूँथना,या किसी भक्त के द्वारा अपने भगवान को अर्पित करने, मे उपयोग नहीं किया जाय और उसे तरपना पड़े। और कमजोर पड़ रही अंग्रेज़ी हुकुमत को राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्ति…

 

'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है '

 

जैसे आदेश दे रही हो अंग्रेज़ों को कि अब तेरे दिन गए, अब भारत भारतीयों का है। इकबाल की पंक्ति….

 'सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा '

                                                                    

सारे दुखों को, आपसी मतभेद को खत्म कर देती हैं और हम एक सूत्र में बँध जाते हैं। अगर हम स्वाधीनता के समय भारतीय साहित्य की भूमिका का अवलोकन करें तो हम पाएंगे कि यह साहित्य स्वाधीनता संग्राम के समय हो रहे सामजिक, राजनैतिक गतिविधियों से प्रभावित हो रहा था, मगर जैसे जैसे यह आन्दोलन अपने मुकाम पर पहुंचने लगा और पहुंचा इसने समाज को भी प्रभावित कर दिया जैसा कि इसका प्राकृतिक गुण है। जिसका परिणाम हुआ कि आजादी मिलने तक और इसके कुछ दिनों के बाद तक लगभग लगभग बहुत सी सामजिक कुरीतियों का समापन हो गया, जो मानव को कलंकित करतीं थीं।

....अगले  अंक में  जारी .....

https://gautamjha912.blogspot.com/2021/11/3.html

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