Sunday, 5 December 2021

भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक विरासत!!!(4)

 

भारतीय  साहित्य में  प्राकृतिक चित्रण!!! 

भारतीय साहित्य में प्राकृतिक का भी एक महत्वपूर्ण भाग सम्मिलित है। जो इसकी पहचान के अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए सदैव तत्परता के साथ आगे बढ़ते हुए सरसता बनाये हुए हैं। जब प्रकृति और साहित्य के संबंध की बात आती है तो इसका निर्धारण कर पाना की कौन किस से कितना जुड़ा है,कठिन हो जाता है। 


क्योंकि साहित्यिक कृतियों में कोई भी ऐसा नहीं है जिसमें प्रकृति तत्वों का समावेश ना हो। मानव विकास का इतिहास बताता है कि मानव सभ्यताओं,सँस्कृति आदि के विकास में पर्यावरण या ये कहें कि प्रकृति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।हालांकि मानव ने उपयोगिता के अनुसार अपने बल और बुद्धि के सहारे प्रकृति संसाधनों का प्रयोग कर यँहा तक पहुँचने में सफ़ल रहा।आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय साहित्य और प्रकृति के बिच अनुपम संबंध रहा है। कोई भी लेखक या कवि और नाटककार खुद को तब तक कुशल नहीं मानते जब तक की अपनी कलम और अपनी प्राकृतिक प्रेम को कागज़ पे उतार ना ले। हालांकि बहुत से ऐसे लेखक भी हुयें है जिन्हें सिर्फ़ इसीलिए पढ़ा गया,क्योंकि उन्हों अपना और अपने प्राकृतिक प्रेम को एक अलग मुकाम तक पहुँचा दिया। उनकी पहचान ही उसी से होने लगीं ।


 उदाहरण के तौर पर "सुमित्रानंदन पंत "जिन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि की पहचान मिली। ऐसे अनेक कवि है। तो कुछ ऐसे भी कवि हुये, जिन्हें पाठकों का ऐसे वर्ग नहीं मिला जो उनके प्रकृति भावनाओं को समझ सकें। लेकिन प्रकृति चित्रण का प्रयास हर किसी ने किया है। किसी ने प्राकृति के साथ अपने ममत्व के रिस्तों को उजागर किया तो किसी ने सखा,प्रेमी,के रुप में पर्यावरण और उसके संसाधनों का चित्रण किया है।भक्तिकाल और रीतिकाल भी प्राकृति चित्रण से अछूते नहीं रह पाए।



 तुलसी,कबीर,बिहारी,विद्यापति आदि ने प्राकृति और साहित्य के बिच भक्तिभाव का ऐसे मन्ज़र पेश किया है कि आम लोगों के लिए इसका निर्णय करना कठिन हो गया कि किसे पढ़ा जाय और किसे छोड़ा। उन्होंने इस समय के दर्शन को साहित्य और प्राकृतिक सौंदर्य के मिश्रित रूप का वर्णन इतनें आसान पदावली में किया कि पाठकों को इस पर विवस कर दिया की वो काल्पनिक और हकीकत में अंतर करना भुल जांय। और साहित्य के उस समुंदर में खो जायें जँहा सिर्फ़ अलग-अलग साहित्यिक मोती मिलती हो। और बाहरी दुनिया के उथल-पुथल में जानें का कोई गुंजाइश ही नहीं हो।


 और जीवन के उस आनंद को महसूस करें जिसकी कल्पना में मानव खोया रहता है। उदाहरण के तौर पर,जब तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में राम के वनवास की बात कर रहें है तो उन्हें इसका पुरा ध्यान रखा है की राम के दुख से पाठक दुखी ना हो और अपने दोहों में साहित्यिक रस भरने में किसी तरह का कोई कंजूसी नहीं किया है। जिसे पढ़कर पाठक वनवास के उन दुखों से दुखी ना होकर प्राकृति के उस परिकल्पना में खो जाते जँहा कांटे भी पुष्प समान कोमल हो जातें हैं।


इसी तरह निराला ने  छायावाद तो पंत ने मानवीकरण आदि के द्वारा प्राकृति के अलग-अलग स्वरुप का प्राकृतिक चित्रण किया है। भारतीय साहित्य की रचनाएँ को पढ़ने के बाद अगर यह कहा जाय की,भारतीय साहित्य इसकी सँस्कृति और प्राकृति रूपी नदी के दो  किनारे है जिसमें साहित्यिक धारा प्रवाहित होती है।


तो मेरे समझ से यह इसीलिए भी सही होगा क्योंकि अनादिकाल से लेकर आधुनिक काल तक के सभी साहित्यकारों ने अपने रचनाओं में प्राकृतिक चित्रण ना करना अपनी रचनाओं को अधूरा छोड़ना जैसा समझा है। 


और साहित्य में प्राकृतिक चित्रण अनिवार्य समझा है। कभी अपने रचनाओं से प्राकृतिक निरिक्षण तो कभी वर्णन,कभी सौंदर्य तो कभी विकृति आदि का चित्रण किया है। अलग-अलग काल में उछिपण ,आलम्बन,चेतना,मानवीकरण आदि द्वारा अपने रचनाओं को सहित्यिक पराकास्ठा पर ले जाने का काम किया है। 


नायक नाईका के सौंदर्य परिकल्पना से करुण कलपना तक, आध्यात्म से लेकर साधना तक,कवि या लेखकों ने अपनी कल्पना को सही आकार देने का असंभव कार्य को प्राकृति चित्रण के द्वारा ही सम्भव कर सका है।


भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक विरासत के इस आख़री अंक में हमने साहित्य की प्राकृति से जुडी पहलुँओं को रखा। और इस अंक के साथ पिछले सभी अंकों के लिंक को साझा कर रहा हूँ ,आशा  है की  सभी अंक आपको सही लगे....... 

अपनी राय देना न भूले...


https://gautamjha912.blogspot.com/2021/11/blog-post.html

https://gautamjha912.blogspot.com/2021/11/2.html

https://gautamjha912.blogspot.com/2021/11/3.html

संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

केंद्र सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में, इस बार 5 लोगों को भारतरत्न देने की घोषणा की हैं। केंद्र के इस घोषणा के बाद जहां विपक्...