लोकसभा से पहले कुल 5 राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए। पांचों राज्यों में से एक में कांग्रेस, एक में क्षेत्रीय पार्टी ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट(ZPM) और बाकी के तीन राज्यों छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी (BJP) की प्रचंड बहुमत के साथ जीत हुई है। चुनाव खत्म होने के बाद छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी की वापसी पर मुहर तो लग गया मगर मुख्यमंत्री कौन होगा इसके चर्चे जारी है। और यही हाल लगभग 18 सालों से एक ही मुख्यमंत्री चेहरे वाला राज्य मध्यप्रदेश का भी है। नेता से लेकर कार्यकर्ता तक और फिर जनता तक सबकों एक ही सवाल के जबाव की उत्सुकता है कि अगला मुख्यमंत्री कौन?
मुख्यमंत्री के नाम पर मुहर तो हाई-कमान का ही लगेगा, मगर चर्चे चारों तरफ जारी है। कोई कह रहा ये होंगे, तो किसी का मानना है कि वो नहीं हो सकते, सबके अपने मत है। इससे पहले बीजेपी ने कुल 21 संसदों को विधानसभा के चुनावी समर में उतारा जिसमें 12 चुनाव जीत गए, जबकि नौ सांसद अपनी सीट बचाने में नाकामयाब साबित हुए। अब जब पार्टी में मुख्यमंत्री पद के लिए दौड़ हो रही है उस रेस के बीच भारतीय जनता पार्टी के सभी ऐसे संसद जो पार्टी की सत्ता बचाओ अभियान में शामिल थे उनमें से विजयी विधायकों ने अपनी संसदी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया। उनके इस्तीफ़े के बाद कहा जा रहा ही है कि बीजेपी ऐसी पार्टी है जिसके कार्यकर्ता पद और उपाधियों की महत्वाकांक्षा से परे है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है, क्योंकि इसी पार्टी के करीब 25 से अधिक कार्यकर्ता सिर्फ राजस्थान के है जिन्होंने पार्टी से सिर्फ टिकट की आकांक्षा थी उन्होंने टिकट ना मिलने के कारण पार्टी के खिलाफ़ ही खुद को खड़ा कर दिया। मतलब कि बीजेपी सिर्फ पार्टी पार्टी पॉलिटिक्स तक सीमित तो नही हैं।
एक दौर में पार्टी अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी के लिए जिन शब्दों का प्रयोग करती थी और आरोप लगाती रही है ये पारिवारिक पार्टी है, ये हाई कमान की पार्टी है,आदि आज वही शब्द पार्टी के पर्याय हो गए है। चाहे वो उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव हो, बिहार विधानसभा चुनाव हो, और हिन्दी पट्टी का कोई राज्य, दक्षिण में भी पार्टी की रणनीति रही है। और जहाँ क्षेत्रवाद जीता वहाँ पार्टी हार गई। आप मेरे मत से असहमत हो सकते है। लेकिन आँकड़े यही कहते है। उदाहरण के लिए अगर आप गौर करेंगे कि 2014 के बाद जो राजनैतिक परिवर्तन हुए है, उसमें सत्ता का केन्द्रीकरण सिर्फ एक केंद्र है तक सीमित रह गया। जो उससे पहले नही थीं। पहले भी सरकारें बनती थी, बिगड़ती थी लेकिन कारक कई होते थे। पहले की राजनीति का परिणाम विकेंद्रीकरण पर निर्भर होता था। जो आज बदल गई है। इससे 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव से जोड़ कर देखें तो। राज्य में जनता ने पार्टी को बहुतमत से काफ़ी बड़ी सँख्या में जनादेश दिया। कुल 430 सीटों में 325 सीटें जीतकर भी विधायक दल का नेता यानी की मुख्यमंत्री बना एक संसद। यहाँ तक की राज्य में उपमुख्यमंत्री जो संवैधानिक तौर पर कोई पद नही है लेकिन वो भी एक संसद को मिला। क्योंकि सिर्फ सत्ता नहीं चाहिए।
अब जब ऐसे में हम क्षेत्रीय सत्ता की बात करते है तो ऐसे प्रस्थिति में जब सत्ता के विकेंद्रीकरण से ज्यादा प्रभावी उसका केन्द्रीकरण हो जाय तो फैसले भले ही लोकतांत्रिक लगे मगर होते नही है। जिसका हालिया उदाहरण तीन राज्यों के चुनाव परिणाम है। जहाँ सब कुछ निर्णय होने के बाद भी मुख्यमंत्री के नाम पर फैसले का इंतजार किया जा रहा। मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो राजस्थान, छत्तीसगढ़, और मध्यप्रदेश तीनों राज्यों को मिला दे तो कुल, लगभग 15 से 16 नाम मुख्यमंत्री लिस्ट में है। इसमें पिछले मुख्यमंत्रियों समेत कुछ ऐसे नाम भी जो मीडिया में अचानक आ गए है। इनमें कोई कोई एंटी-इनकम्बेंसी फ़ैक्टर के चलते चर्चा में है, तो कोई ओबीसी, दलित या आदिवासी समुदाय से आता है जो ना सिर्फ इस चुनाव के लिए बेहतर विकल्प है आगामी लोकसभा के लिए भी लाभदायक है। बाकी कुछ लोग ऐसे भी जिसकी पार्टी में पहुँच उपर तक है या भी विधायकों का एक बड़ा हिस्सा उनके पक्ष में है। लेकिन सभी के किस्मत का फैसला हाई कमान के हाथों में है। जो अगले कुछ दिनों के भीतर साफ हो जाएंगे।