Thursday, 7 December 2023

जनादेश के बाद, किसे मिलेगा आदेश?

लोकसभा से पहले कुल 5 राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए। पांचों राज्यों में से एक में कांग्रेस, एक में क्षेत्रीय पार्टी ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट(ZPM) और बाकी के तीन राज्यों छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी (BJP) की प्रचंड बहुमत के साथ जीत हुई है। चुनाव खत्म होने के बाद छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी की वापसी पर मुहर तो लग गया मगर मुख्यमंत्री कौन होगा इसके चर्चे जारी है। और यही हाल लगभग 18 सालों से एक ही मुख्यमंत्री चेहरे वाला राज्य मध्यप्रदेश का भी है। नेता से लेकर कार्यकर्ता तक और फिर जनता तक सबकों एक ही सवाल के जबाव की उत्सुकता है कि अगला मुख्यमंत्री कौन? 


मुख्यमंत्री के नाम पर मुहर तो हाई-कमान का ही लगेगा, मगर चर्चे चारों तरफ जारी है। कोई कह रहा ये होंगे, तो किसी का मानना है कि वो नहीं हो सकते, सबके अपने मत है। इससे पहले बीजेपी ने कुल 21 संसदों को विधानसभा के चुनावी समर में उतारा जिसमें  12 चुनाव जीत गए, जबकि नौ सांसद अपनी सीट बचाने में नाकामयाब साबित हुए। अब जब पार्टी में मुख्यमंत्री पद के लिए दौड़  हो रही है उस रेस के बीच भारतीय जनता पार्टी के सभी ऐसे संसद जो पार्टी की सत्ता बचाओ अभियान में शामिल थे उनमें से विजयी विधायकों ने अपनी संसदी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया। उनके इस्तीफ़े के बाद कहा जा रहा ही है कि बीजेपी ऐसी पार्टी है जिसके कार्यकर्ता  पद और उपाधियों की महत्वाकांक्षा से परे है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है, क्योंकि इसी पार्टी के करीब 25 से अधिक कार्यकर्ता  सिर्फ राजस्थान के है जिन्होंने पार्टी से सिर्फ टिकट की आकांक्षा थी उन्होंने टिकट ना मिलने के कारण पार्टी के खिलाफ़ ही खुद को खड़ा कर दिया। मतलब कि बीजेपी  सिर्फ पार्टी पार्टी पॉलिटिक्स तक सीमित तो नही हैं। 


एक दौर में पार्टी अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी के लिए जिन शब्दों का प्रयोग करती थी और आरोप लगाती रही है ये पारिवारिक पार्टी है, ये हाई कमान की पार्टी है,आदि आज वही शब्द पार्टी के पर्याय हो गए है। चाहे वो उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव हो, बिहार विधानसभा चुनाव हो, और हिन्दी पट्टी का कोई राज्य, दक्षिण में भी पार्टी की रणनीति रही है। और जहाँ क्षेत्रवाद जीता वहाँ पार्टी हार गई। आप मेरे मत से असहमत हो सकते है। लेकिन आँकड़े यही कहते है। उदाहरण के लिए अगर आप गौर करेंगे कि 2014 के बाद जो राजनैतिक परिवर्तन हुए है, उसमें सत्ता का केन्द्रीकरण सिर्फ एक केंद्र है तक सीमित रह गया। जो उससे पहले नही थीं। पहले भी सरकारें बनती थी, बिगड़ती थी लेकिन कारक कई होते थे। पहले की राजनीति का परिणाम विकेंद्रीकरण पर निर्भर होता था। जो आज बदल गई है। इससे 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव से जोड़ कर देखें तो। राज्य में जनता ने पार्टी को बहुतमत से काफ़ी बड़ी सँख्या में जनादेश दिया। कुल 430 सीटों में 325 सीटें जीतकर भी विधायक दल का नेता यानी की मुख्यमंत्री बना एक संसद। यहाँ तक की राज्य में उपमुख्यमंत्री जो संवैधानिक तौर पर कोई पद नही है लेकिन वो भी एक संसद को मिला। क्योंकि सिर्फ सत्ता नहीं चाहिए।  


अब जब ऐसे में हम क्षेत्रीय सत्ता की बात करते है तो ऐसे प्रस्थिति में जब सत्ता के विकेंद्रीकरण से ज्यादा प्रभावी उसका केन्द्रीकरण हो जाय तो फैसले भले ही लोकतांत्रिक लगे मगर होते नही है। जिसका हालिया उदाहरण तीन राज्यों के चुनाव परिणाम है। जहाँ सब कुछ निर्णय होने के बाद भी मुख्यमंत्री के नाम पर फैसले का इंतजार किया जा रहा। मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो राजस्थान, छत्तीसगढ़, और मध्यप्रदेश तीनों राज्यों को मिला दे तो कुल, लगभग 15 से 16 नाम मुख्यमंत्री लिस्ट में है। इसमें पिछले मुख्यमंत्रियों समेत कुछ ऐसे नाम भी जो मीडिया में अचानक आ गए है। इनमें कोई  कोई एंटी-इनकम्बेंसी फ़ैक्टर के चलते चर्चा में है, तो कोई ओबीसी, दलित या आदिवासी समुदाय से आता है जो ना सिर्फ इस चुनाव के लिए बेहतर विकल्प है आगामी लोकसभा के लिए भी लाभदायक है। बाकी कुछ लोग ऐसे भी जिसकी पार्टी में पहुँच उपर तक है या भी विधायकों का एक बड़ा हिस्सा उनके पक्ष में है। लेकिन सभी के किस्मत का फैसला हाई कमान के हाथों में है। जो अगले कुछ दिनों के भीतर साफ हो जाएंगे।

Tuesday, 5 December 2023

कौन कितना गरीब ?

  


पिछले दिनों भारत को लेकर ऑक्सफैम ने  एक रिपोर्ट छापी "सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट: द इंडिया स्टोरी" ,जिसके आँकड़े भारतीय अर्थव्यवस्था के उस पन्ने को दिखाती जिसके एक पृष्ट पर कारक है तो दूसरे पृष्ट पर कर्ता। लेकिन ताज्जुब की बात है कि यहाँ कौन कहाँ है? और कैसे है? इसके कोई एक आँकड़े नहीं है जिस के आधार पर कुछ भी मान लिया जाय या फिर ये कहा जाय की विकास कि जरूरत किसे है। खैर इस विषय पर आगे बात करेंगे, फिलहाल रिपोर्ट में छपे आंकड़ों की जिसके कारण मेरे मन में इस लेख का शीर्षक आया, कौन कितना गरीब? 

 

भारत विविधताओं का देश ना सिर्फ भौगोलिक, सामाजिक, और साँस्कृतिक रूप से है बल्कि यह विविधता आर्थिक रूप से भी है। और अगर तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाय तो आर्थिक विविधता कहीं ज्यादा ही है। आप यह कहते सकते हो है कि मैं जिस समाज से आता हूँ, जिस परिवेश से आता हूँ, जैसा खान-पान है, पहनावा है, उसमें यह है और यह नहीं। लेकिन आप ये नहीं कह सकते हैं मेरी जरूरतें और आपकी कुछ जरूरतें ऐसी नहीं जो जो आर्थिक तंगी का शिकार ना हो। सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट रिपोर्ट यही कहता है। उदाहरण के लिए देखें तो हम उस समाज में है जहाँ खुले मंचों से यह कहा जाता है कि लिंग भेद कानून जुर्म है लेकिन इस जुर्म से बेगुनाह कितने लोग है? प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरुष श्रमिकों द्वारा अर्जित प्रति 1 रुपए के मामले में महिला श्रमिकों को केवल 63 पैसे मिलते हैं। ये सिर्फ आर्थिक असमानता नहीं है। बल्कि यह हमारी धारणा है कि महिलायें उन कामों में बेहतर नहीं है जो पुरुषों के लिए बाँटे गए है। लेकिन इसके विपरीत जब ऐसे काम जिन्हे महिलाओं के लिए बाँट दिया गया है वो अगर कोई पुरुष करता है तो उसे सामान्य मजदूरी से दो गुणा ,चार गुणा ज्यादा मजदूरी मिलती है।


इसके साथ साथ सामाजिक-आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति वाले लोगों की तुलना में वर्ष 2018 और 2019 में  अनुसूचित जाति और ग्रामीण मज़दूरों की हिस्सेदारी क्रमशः 55% और 50% ही रही है। जिसके संकेत और जमीनी स्थिति हालत बयां करने को काफ़ी है। दरअसल हमारे द्वारा ही बनाई गई ये विविधता हमे बार बार लज्जित भी करती है और उलझाती भी है। और यह विविधता हमने सिर्फ एक क्षेत्र तक सीमित  भी नहीं रखी है। जिसके परिणाम है कि वैश्विक दौर में आज हम जहाँ है, वहाँ हमे बहुत पहले होना चाहिए था। 


रिपोर्ट के  अनुसार, देश कि अर्थव्यवस्था में सिर्फ सबसे अमीर लोगों को प्राथमिकता दिये जाने के कारण देश में हाशिये पर रहने वाले समुदाय जैसे- दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाएँ और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक पीड़ित हैं। इसमें नया नाम सवर्णों का भी है। जिसके बारे में आमतौर पर यह धारणा है कि ये आर्थिक रूप से सशक्त है, सक्षम है। लेकिन जमीनी स्थिति पूर्ण रूप से ऐसी नहीं है। कागजी और जमीनी आँकड़ों में काफ़ी अंतर है। ये ना तो ज्यादा अमीर है ना ही ज्यादा गरीब। जिसका नतीजा है कि अर्थव्यवस्था में होने वाली छोटी से छोटी परिवर्तन भी इनपर बड़ा इम्पैक्ट डालती है। 

ऐसे ही आँकड़े है ऑक्सफैम इंडिया के जो कहती है भारत में अमीरों की तुलना में गरीब असमान रूप से उच्च करों का भुगतान कर रहे हैं और आवश्यक वस्तुओं एवं सेवाओं पर अधिक खर्च कर रहे हैं।आईएमएफ ने अनुमान लगाया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 2027 तक जापान और जर्मनी को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी और  2047 तक भारत एक विकसित अर्थव्यवस्था वाला राष्ट के श्रेणी में आ जाएगा। मगर  विशेषज्ञों की माने तो तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए भारत को  6.5% की वृद्धि की आवश्यकता होगी और दूसरे स्थान के लिए  8% -9% की वृद्धि की आवश्यकता होगी। और इसकी वर्तमान अर्थव्यवस्था 3.63 ट्रिलियन डॉलर है। और वर्ष 2023-24 के लिये अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद (GDP) वृद्धि 6.5% है। यानि की हम तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बेहद करीब है। 


इसके एक और पहलू को देखिए ऑक्सफैम के रिपोर्ट में कहा गया कि नवंबर 2022 तक महामारी शुरू होने के बाद से भारत में अरबपतियों  के संपत्ति में 121%  यानी करीब 3,608 करोड़ रुपए प्रति दिन की ग्रोथ हुई। लेकिन 2021-22 के गुड्स एंड सर्विस टैक्स (GST) में करीब 14.83 लाख करोड़ रुपए का लगभग 64% भारत के उस आबादी से आया जिसकी हिस्सेदारी आधे से भी कम है। और  GST का सिर्फ 3% ही शीर्ष 10 % से आया। मतलब आप यह कह  सकते है कि भारत कि सबसे अमीर 1% आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 40% से अधिक हिस्सा है, जबकि एक-साथ वर्ष 2012 और 2021 के दौरान नीचे की आधी आबादी की संपत्ति में हिस्सेदारी मात्र 3% थी। यानी की कौन कितना गरीब है आप इसका अनुमान इस आँकड़े से लगा सकते है। 

आसानी से समझने के लिए देखें तो 2022 में अरबपतियों की कुल संख्या बढ़कर 166 हो गई जबकी 2020 में यह आँकड़े 102 था। भारत के 100 सबसे अमीर लोगों की संयुक्त संपत्ति 660 अरब डॉलर है। यानी की 18 महीने से ज्यादा के पूरे केंद्रीय बजट को फंड  दिए जाने वाली राशि के बराबर। 


मतलब साफ है, कि कौन कितना गरीब है? और क्यों है? इसके कई किस्से है। मगर एक बात है कि जो जीतना अमीर है वो उतना ही अमीर होता चला जा रहा है, और जो जितना गरीब है वो उतना ही गरीब। लेकिन विकास हो रहा है। 

Saturday, 2 December 2023

Animal Review



फिल्म;  एनिमल

कलाकार;  रणबीर कपूर , रश्मिका मंदाना , बॉबी देओल, सुरेश ओबेरॉय , शक्ति कपूर और अनिल कपूर

लेखक; संदीप रेड्डी वंगा , प्रणय रेड्डी वंगा और सौरभ गुप्ता

निर्देशक संदीप रेड्डी वंगा

निर्माता; भूषण कुमार , मुराद खेतानी , कृष्ण कुमार और प्रणय रेड्डी वंगा

रेटिंग;   2.3 /5  

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अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो, नए दौर का सिनेमा किस्सों का नहीं है। किरदारों का है, टेकनोलॉजी का है, घिसी पिटी कहानी का है, और अंत में प्रमोशन का है। जिसके सहारे बार बार यह साबित किया जाता है कि ये नही देखा तो क्या देखा? और पूरे पैसे वसुल के नाम पर अंत में मिलता है पॉपकॉर्न वो भी बाजार के तुलना में तिगूने- चौगूने कीमतों पर। जिसका नतिजा है कि आज बढ़ियां सिनेमा और बेहतर दर्शकों दोनों एक दुसरे को ढुंढते फिर रहें। खैर ये तो हुई सीनेमा की बात जिसके कई पहलु है,और किसी एक के आधार पर दुसरे की तुलना करना सही नही होगा।


पारिवारिक ड्रामा पर आधीरत एक्शन थ्रिलर फिल्म  एनिमल अपने दर्शकों को पुरे 3 घंटे यह सोचने पर मजबुर करता है कि सिनेमा देखना इतना भी दुष्कर नहीं होना चाहिए। अगर आप फिल्म यूं ही देख लेते है तो इस फिल्म को देखने की कई वजहें  हैं लेकिन अगर फिल्म देखने का कोई खास मकसद है तो रूक जाएं। यह आपके समय और आर्थीक सेहत के लिए फाय़देमंद होगी। 


एनिमल की कहानी एक ऐसे लड़के के बारे में है जो अपने पिता के प्रेम का भूखा है, जो प्रेम उसे एनिमल बना देता है। जैसा कि आज के अधिकांश  फिल्में बताती है रियलिज़्म नाम की कोई चीज नहीं होती यह फिल्म उसी पटकथा को बार बार साबित करती है। बचपन से ही पिता के वक्त और प्यार को तरसता उस लड़के की कोशिस है कि वो अपने पिता को बेटे के प्रेम की वो कमी नहीं होने देगा जिसकी कमी उसने बार बार महसूस किया है। अपने प्यार को साबित करने के लिए वो हिंसा, सनकी प्रेम, स्त्रीविरोध, और महिमामंडन आदि करता है। इस फिल्म की मूल कहानी है। 


एक्टर्स ने शानदार एक्टिंग की है। निर्देशक ने शानदार निर्देशन किया है, और म्यूजिक का तड़का तो है ही। इसके साथ साथ फिल्म आपको उन किरदारों से भी जोड़ती है जो जिसे आपने एक लंबे स्क्रीनटाइम में देखा, लेकिन इस फिल्म में उन्हे ज्यादा वक्त नहीं मिला। फिर भी उनका अभिनय आपको खिचती है। रणबीर कपूर को छोड़ दे तो बमुश्किल उनके दो-तीन सीन्स के आधार पर ही आपको यह तय करनी है कि उन्होंने अच्छी एक्टिंग की है। रही बात रणबीर कपूर कि तो उन्होंने खुद को अलग तरीके से पेश किया है। जिसको लेकर आपको ज्यादा सोचना नहीं पड़ेगा क्योंकि उनके अभिनय की एक झलक फिल्म संजु में देखी जा चुकी है। बॉबी देवल को लेकर जो उम्मीद फिल्म के टेलर ने जगाई थी उसके अनुसार  फिल्म में उनका स्क्रीनटाइम दर्शकों को निराश जरूर करता है लेकिन उनके अभिनय के उन्हे पूरे अंक मिलते है। रही बात कहानी की तो संदीप रेड्डी वांगा को जो दिखाना था, जो कहना था, या यह कहे कि जिस तरह का वार्तालाप हम देखते है, करते है, और सुनते है, उसे बड़े पर्दे पर रख दिया गया है। ऐसे में सिर्फ मनोरजन कों ध्यान में रखते हुए यह फिल्म आपके तनाव को कम जरूर करता है लेकिन कहानी खत्म होते होते आपको यह निर्णय लेने का का अच्छा खासा समय भी दे रहा है जब आप यह सोचे कि कहानी के अगले भाग में क्या हुआ? 



फिल्म 1 दिसम्बर को बड़े पर्दे पर रिलीज हुई है, और जल्द ही यह ओटीटी पर आएगी। बड़े पर्दे पर फिल्म देखने के लिए आपको नजदीकी सिनेमाघरों में जाना होगा मगर ओटीटी के लिए आपको अभी इंतजार करना पड़ेगा। तब तक फिल्म का ट्रेलर देखने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक का सहारा ले सकते है।  

      https://www.youtube.com/watch?v=8FkLRUJj-o0


संपादकीय विचार (Editorial Opinion)

केंद्र सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में, इस बार 5 लोगों को भारतरत्न देने की घोषणा की हैं। केंद्र के इस घोषणा के बाद जहां विपक्...