पिछले दिनों भारत को लेकर ऑक्सफैम ने एक रिपोर्ट छापी "सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट: द इंडिया स्टोरी" ,जिसके आँकड़े भारतीय अर्थव्यवस्था के उस पन्ने को दिखाती जिसके एक पृष्ट पर कारक है तो दूसरे पृष्ट पर कर्ता। लेकिन ताज्जुब की बात है कि यहाँ कौन कहाँ है? और कैसे है? इसके कोई एक आँकड़े नहीं है जिस के आधार पर कुछ भी मान लिया जाय या फिर ये कहा जाय की विकास कि जरूरत किसे है। खैर इस विषय पर आगे बात करेंगे, फिलहाल रिपोर्ट में छपे आंकड़ों की जिसके कारण मेरे मन में इस लेख का शीर्षक आया, कौन कितना गरीब?
भारत विविधताओं का देश ना सिर्फ भौगोलिक, सामाजिक, और साँस्कृतिक रूप से है बल्कि यह विविधता आर्थिक रूप से भी है। और अगर तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाय तो आर्थिक विविधता कहीं ज्यादा ही है। आप यह कहते सकते हो है कि मैं जिस समाज से आता हूँ, जिस परिवेश से आता हूँ, जैसा खान-पान है, पहनावा है, उसमें यह है और यह नहीं। लेकिन आप ये नहीं कह सकते हैं मेरी जरूरतें और आपकी कुछ जरूरतें ऐसी नहीं जो जो आर्थिक तंगी का शिकार ना हो। सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट रिपोर्ट यही कहता है। उदाहरण के लिए देखें तो हम उस समाज में है जहाँ खुले मंचों से यह कहा जाता है कि लिंग भेद कानून जुर्म है लेकिन इस जुर्म से बेगुनाह कितने लोग है? प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरुष श्रमिकों द्वारा अर्जित प्रति 1 रुपए के मामले में महिला श्रमिकों को केवल 63 पैसे मिलते हैं। ये सिर्फ आर्थिक असमानता नहीं है। बल्कि यह हमारी धारणा है कि महिलायें उन कामों में बेहतर नहीं है जो पुरुषों के लिए बाँटे गए है। लेकिन इसके विपरीत जब ऐसे काम जिन्हे महिलाओं के लिए बाँट दिया गया है वो अगर कोई पुरुष करता है तो उसे सामान्य मजदूरी से दो गुणा ,चार गुणा ज्यादा मजदूरी मिलती है।
इसके साथ साथ सामाजिक-आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति वाले लोगों की तुलना में वर्ष 2018 और 2019 में अनुसूचित जाति और ग्रामीण मज़दूरों की हिस्सेदारी क्रमशः 55% और 50% ही रही है। जिसके संकेत और जमीनी स्थिति हालत बयां करने को काफ़ी है। दरअसल हमारे द्वारा ही बनाई गई ये विविधता हमे बार बार लज्जित भी करती है और उलझाती भी है। और यह विविधता हमने सिर्फ एक क्षेत्र तक सीमित भी नहीं रखी है। जिसके परिणाम है कि वैश्विक दौर में आज हम जहाँ है, वहाँ हमे बहुत पहले होना चाहिए था।
रिपोर्ट के अनुसार, देश कि अर्थव्यवस्था में सिर्फ सबसे अमीर लोगों को प्राथमिकता दिये जाने के कारण देश में हाशिये पर रहने वाले समुदाय जैसे- दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाएँ और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक पीड़ित हैं। इसमें नया नाम सवर्णों का भी है। जिसके बारे में आमतौर पर यह धारणा है कि ये आर्थिक रूप से सशक्त है, सक्षम है। लेकिन जमीनी स्थिति पूर्ण रूप से ऐसी नहीं है। कागजी और जमीनी आँकड़ों में काफ़ी अंतर है। ये ना तो ज्यादा अमीर है ना ही ज्यादा गरीब। जिसका नतीजा है कि अर्थव्यवस्था में होने वाली छोटी से छोटी परिवर्तन भी इनपर बड़ा इम्पैक्ट डालती है।
ऐसे ही आँकड़े है ऑक्सफैम इंडिया के जो कहती है भारत में अमीरों की तुलना में गरीब असमान रूप से उच्च करों का भुगतान कर रहे हैं और आवश्यक वस्तुओं एवं सेवाओं पर अधिक खर्च कर रहे हैं।आईएमएफ ने अनुमान लगाया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 2027 तक जापान और जर्मनी को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी और 2047 तक भारत एक विकसित अर्थव्यवस्था वाला राष्ट के श्रेणी में आ जाएगा। मगर विशेषज्ञों की माने तो तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए भारत को 6.5% की वृद्धि की आवश्यकता होगी और दूसरे स्थान के लिए 8% -9% की वृद्धि की आवश्यकता होगी। और इसकी वर्तमान अर्थव्यवस्था 3.63 ट्रिलियन डॉलर है। और वर्ष 2023-24 के लिये अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद (GDP) वृद्धि 6.5% है। यानि की हम तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बेहद करीब है।
इसके एक और पहलू को देखिए ऑक्सफैम के रिपोर्ट में कहा गया कि नवंबर 2022 तक महामारी शुरू होने के बाद से भारत में अरबपतियों के संपत्ति में 121% यानी करीब 3,608 करोड़ रुपए प्रति दिन की ग्रोथ हुई। लेकिन 2021-22 के गुड्स एंड सर्विस टैक्स (GST) में करीब 14.83 लाख करोड़ रुपए का लगभग 64% भारत के उस आबादी से आया जिसकी हिस्सेदारी आधे से भी कम है। और GST का सिर्फ 3% ही शीर्ष 10 % से आया। मतलब आप यह कह सकते है कि भारत कि सबसे अमीर 1% आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 40% से अधिक हिस्सा है, जबकि एक-साथ वर्ष 2012 और 2021 के दौरान नीचे की आधी आबादी की संपत्ति में हिस्सेदारी मात्र 3% थी। यानी की कौन कितना गरीब है आप इसका अनुमान इस आँकड़े से लगा सकते है।
आसानी से समझने के लिए देखें तो 2022 में अरबपतियों की कुल संख्या बढ़कर 166 हो गई जबकी 2020 में यह आँकड़े 102 था। भारत के 100 सबसे अमीर लोगों की संयुक्त संपत्ति 660 अरब डॉलर है। यानी की 18 महीने से ज्यादा के पूरे केंद्रीय बजट को फंड दिए जाने वाली राशि के बराबर।
मतलब साफ है, कि कौन कितना गरीब है? और क्यों है? इसके कई किस्से है। मगर एक बात है कि जो जीतना अमीर है वो उतना ही अमीर होता चला जा रहा है, और जो जितना गरीब है वो उतना ही गरीब। लेकिन विकास हो रहा है।
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